Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
यदि स्वप्न में बिना इच्छा शुक्र (वीर्य) गिर जाए तो स्नान करके सूर्य की पूजा करके ’पुनर्माम्‘ इस मन्त्र का तीन बार जप करें।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
यह (२।१५६ (२।१८१)) श्लोक निम्नकारणों से प्रक्षिप्त है -
(क) इस श्लोक से पूर्व तथा बाद में ब्रह्मचर्य के नियमों का विधान किया गया है, अतः नियम - विधान के मध्यम में ही प्रायश्चित का वर्णन प्रसंग - विरूद्ध है । और व्रत या नियम के भंग होने पर यदि प्रायश्चित का विधान भी करना है, तो दूसरे व्रत - नियमों के भंग होने पर प्रायश्चित का क्यों विधान नहीं किया ? क्या उनमें त्रुटि सम्भव नहीं है ?
(ख) और मनु ने प्रथम दश अध्यायों में धर्मों का विधान किया है, और उसके बाद एकादश - अध्याय में प्रायश्चितों का विधान किया है । अतः यहां मध्य में प्रायश्चित का विधान मनु की शैली से भी विरूद्ध है । मनु यदि इस प्रकार मध्य - मध्य में ही प्रायश्चित का विधान करते तो एक पृथक् - प्रकरण ही क्यों बनाते ?
(ग) और इस श्लोक में ‘अर्कम् अर्चयित्वा’ कहकर सूर्य की पूजा का कथन भी इसे मनु से विरूद्ध सिद्ध कर रहा है क्यों कि समस्त मनुस्मृति में एक परमेश्वर की पूजा तथा उपासना का विधान किया गया है । और जड़ - पदार्थों की पूजा करना वेद - विरूद्ध होने से मनु कैसे कह सकते थे ? वेद में जड़ - पूजा करने वालों की भी दुर्दशा का वर्णन करते हुए लिखा है -
अन्धन्तमः प्रविशन्ति येऽसम्भूतिमुपासते ।
ततो भूय इव ते तमो य उ सम्भूत्यां रताः ।। (यजु०)
इस मन्त्र में प्रकृति तथा उसके कार्य पदार्थों की उपासना करने वालों को घोर दुःखमय योनियों में जाने का वर्णन किया । यह श्लोक पौराणिक प्रभाववश किसी व्यक्ति ने जड़ - पूजा प्रचलन होने पर ही बिना किसी प्रसंग के मिलाया है, अतः प्रसंगविरूद्ध तथा मनु की मान्यता के विरूद्ध होने से यह श्लोक प्रक्षिप्त है ।