Manu Smriti
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मातुरग्रेऽधिजननं द्वितीयं मौञ्जिबन्धने ।तृतीयं यज्ञदीक्षायां द्विजस्य श्रुतिचोदनात् ।2/169
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
वेद में ब्राह्मण के तीन जन्म लिखे हैं। पहला जन्म माता से, दूसरा जनेऊ होने से और तीसरा यज्ञ करने से।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये (२।१४४ - १४९ (२।१६९ - १७४) तक) छः श्लोक निम्नलिखित कारण से प्रक्षिप्त हैं - (क) २।१४४ वें श्लोक में तीन जन्मों का कथन मनु की मान्यता से विरूद्ध है । मनु ने २।१२२ - १२३ श्लोकों में द्विजों के दो जन्मों का तथा २।१२१ में जन्म देने वाले एवं ज्ञान देने वाले दो पिताओं का कथन किया है । और ‘द्विज’ शब्द से भी दो जन्मों की ही पुष्टि होती है । अतः यहाँ तीन जन्मों की बात पूर्ववत्र्ती मान्यता से विरूद्ध होने से मिथ्या है । (ख) और २।१४५ में दूसरे जन्म में सावित्री को माता तथा आचार्य को पिता कहा है । तृतीय - जन्म के माता - पिता कौन हैं ? इसका यहां कोई उल्लेख नहीं है । अतः तृतीय - जन्म की बात इन श्लोकों में भी अपूर्ण होने से कल्पित है । (ग) २।११९ वें श्लोक में ब्रह्मचारी का गुरूकुल में रहते हुए आचार्य ही को माता - पिता कहा है । और १।४५ में सावित्री को माता, आचार्य को पिता कहा है । यह भिन्नता भी परस्पर - विरोध को प्रकट करती है । (घ) २।१४७ में कहा है कि उपनयन - संस्कार से पूर्व वेदोच्चारण न करायें, क्यों कि वह शूद्र के समान है । यहां शूद्र को वेद पढ़ने , सुनने का निषेध करने की भावना प्रकट हो रही है । जब कि यह वेद - विरूद्ध मान्यता होने से मनुसम्मत कदापि नहीं हो सकती । वेद में ‘यथेमां वाचं कल्याणीं आवदानि..........शूद्राय चार्याय०’ कहकर शूद्र को भी वेद पढ़ने का समान अधिकार दिया है । मनु ने सर्वत्र वेदोक्त बातों का ही वर्णन किया है । और २।२१३ श्लोक में शूद्र से भी धर्म की शिक्षा लेने को कहा है, यदि शूद्र को धर्म के कार्यों में अधिकार ही नहीं है तो इस श्लोक की कैसे संगति हो सकती है ? (ड) इन (२।१४६ - १४७) श्लोकों में उपनयन से पूर्व वेद - मन्त्रों का उच्चारण तथा वैदिक कार्य का निषेध किया है । यह भी मनु की मान्यता से विरूद्ध है । क्यों कि उपनयन से पूर्व जातकर्म, नामकरण, आदि वैदिक - संस्कारों का विधान मनु ने किया है । इन संस्कारों में वेद - मन्त्रों का उच्चारण किया जाता है । स्वंय मनु ने ‘मन्त्रवत् प्राशनं चास्य’ (२।४ में) कहकर मन्त्रपूर्वक संस्कार का विधान किया है । तथा २।८० - ८१ श्लोकों में वेदाध्ययन को सब अवस्थाओं में पुण्यप्रद कहा है । अतः वैदिक कर्मों का निषेध अथवा मन्त्रोच्चारण का निषेध उपनयन से पूर्व मनुसम्मत नहीं है । (च) ये (२।१४८ - १४९) श्लोक भी इन (२।१४६ - १४७) से सम्बद्ध होने से प्रक्षिप्त हैं । इनमें भी मन्त्रोच्चारण उपनयन के बाद ही करे, क्यों कि उपनयन करने से पूर्व शूद्र के समान होता है, और शूद्र को मन्त्रोच्चारण का अधिकार नहीं है, इत्यादि मनुविरूद्ध भाव है, अतः ये प्रक्षिप्त हैं ।
 
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