Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
हि क्यों कि अवमतः सुखं शेते अपमान को सहन करने का अभ्यासी मनुष्य सुख पूर्वक सोता है च और सुखं प्रतिबुध्यते सुखपूर्वक जागता है अर्थात् जागृत अवस्था में भी सुखपूर्वक रहता है अभिप्राय यह है कि मानव को सर्वाधिक रूप में व्यथित करने वाली मान - अपमान और उनसे उत्पन्न होने वाली भावनाएँ उस व्यक्ति को सोते तथा जागते व्यथित नहीं करती, वह निश्चिन्त एवं शान्ति पूर्वक रहता है । (अस्मिन लोके सुखं चरति) वह इस संसार में सुख पूर्वक विचरण करता है, तथा अवमन्ता अपमान से व्यथित होने वाला व्यक्ति विनश्यति चिन्ता और शोक के कारण विनाश को प्राप्त होता है ।