Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
मनुष्य आर्तः अपि स्वंय दुःखी होता हुआ भी अरूंतुदः न स्यात् किसी दूसरे को कष्ट न पहुंचावे न परद्रोहकर्मधीः न दूसरे के प्रति ईष्र्या या बुरा करने की भावना मन में लाये अस्य यया वाचा उद्विजते इस मनुष्य के जिस वचन से कोई दुःखित हो ताम् अलोक्यां न उदीरयेत् उस ऐसी लोक में अप्रशंसनीय वाणी को न बोले ।
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
अतः, ब्रह्मचारी को चाहिए कि वह पीड़ित होने पर भी किसी का दिल न दुखावे। किसी के अपकार का काम या विचार न करे। और ऐसा अहितकर वचन कभी न बोले, जिससे दूसरे को उद्वेग प्राप्त हो।