Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
क्रमशः सूक्ष्म अविनाशी तन्मात्रा वही हैं, उनके साथ इस सम्पूर्ण सृष्टि को उत्पन्न किया।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
(दशार्धानाम् तु) दश के आधे अर्थात् पांच महाभूतों की ही (याः) जो (विनाशिन्यः) विनाशशील अर्थात् अपने अहंकार कारण में लीन होकर नष्ट होने के स्वभाव वाली (अण्व्यः मात्राः स्मृताः) सूक्ष्म तन्मात्राएं कही गई हैं (ताभिः) उनके (सार्धं) साथ अर्थात् उनको मिलाकर ही (इदं सर्वम्) यह समस्त संसार (अनुपूर्वशः) क्रमशः - सूक्ष्म से स्थूल, स्थूल से स्थूलतर, स्थूलतर से स्थूलतम के क्रम से (संभवति) उत्पन्न होता है ।
टिप्पणी :
१।२७ वां श्लोक भी किसी समय स्थानभ्रष्ट हो गया है । क्यों कि इससे पूर्व श्लोक १।२६ में कर्मों का विवेचन किया गया है । और १।२८ में भी कर्मों का कथन है । इनके बीच में सूक्ष्म मात्राओं के साथ जगदुत्पत्तिवर्णन कैसे संगत हो सकता है । इस श्लोक की संगति सृष्टि उत्पत्ति प्रकरण में १।१९ श्लोक के पश्चात् १।२१ से पूर्व ही होनी चाहिये । क्यों कि जगत्, मानव तथा वेदों की उत्पत्ति के बाद सूक्ष्ममात्राओं का वर्णन संगत नहीं हो सकता ।