Manu Smriti
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इत्येतन्मानवं शास्त्रं भृगुप्रोक्तं पठन्द्विजः ।भवत्याचारवान्नित्यं यथेष्टां प्राप्नुयाद्गतिम् ।।12/126
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
इस मनु ने धर्म शास्त्र को जो कि भृगुजी ने कहा है जो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य पढ़ता है और तदनुसार कार्य करता है वह अभिलाषित गति को प्राप्त करता है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
यह (12/126 वां) श्लोक निम्नलिखित कारण से प्रक्षिप्त है – 1. शैली-विरोध- (क) मनु के (1 /2 -4) श्लोकों की वर्णन-शैली से स्पष्ट है कि यह शास्त्र मनुप्रोक्त है परन्तु इस श्लोक में उससे विरुद्ध अर्थात् भृगु द्वारा प्रोक्त माना है । इस सम्बन्ध में इस शास्त्र की भूमिका में शैलीगत आधार में विस्तृत विवेचन द्रष्टव्य है । (ख) इस सम्पूर्ण शास्त्र में मनु के प्रवचन की यही शैली रही है कि वे केवल पठनमात्र से अच्छे फल की प्राप्ति नहीं मानते है । परन्तु इस श्लोक में पढ़ने मात्र से ही सदाचारी होना और अभीष्ट गति को प्राप्त करना माना है । अतः यह श्लोक मनुप्रोक्त नही है । मनु के अनुसार तो 125 वें श्लोक में ही मोक्षविषय़क उपसंहार की समाप्ति और इस शास्त्र की समाप्ति हो गयी है । इस शास्त्र को किसी भृगुभक्त ने भृगु द्वारा प्रोक्त सिद्ध करने के लिये जैसे बीच-बीच में श्लोकों का प्रक्षेप किया है, वैसे ही इस श्लोक में भी किया है । इस प्रकार मनुकी शैली तथा प्रवचन से विरोध होने के कारण यह श्लोक परवर्ती प्रक्षेप है । इति महर्षि-मनुप्रोक्तायां प्राकृतभाषा-भाष्यसमन्तायं प्रक्षिप्तश्लोक-समीक्षाविभूषिताश्च मनुस्मृतों कर्मफलविधानानिः श्रेयसकर्म-विधानात्मकों द्वादशोsध्यायः परिसमाप्तः समाप्तञ्चेदं मानवधर्मशास्त्रनामकं शास्त्रम् ।। टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
जो द्विज भृगु ऋषि के कहे हुये इस मानव धर्म शास्त्र को पढ़कर सदा तदनुकूल आचरण करता है, वह यथेष्ट गति को पाता है।
 
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Comment By: ashu
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