Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
मन में चन्द्रमा का, श्रोत्रेन्द्रिय में दिशा को, पादेन्द्रिय में विष्णु को, बल में हर को, वाक् इन्द्रिय में अग्नि को, वायु इन्द्रिय में, मित्र, देवता को, लिंग इन्द्रिय में प्रजापति को लीन करें।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये दोनों (12/120-121) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है –
1. प्रसंगविरोध- प्रस्तुत प्रसंग में पूर्वापर श्लोको मे (119 और 122) में सर्वव्यापक परमात्मा का वर्णन है और उसी को जानने का उपदेश है । परन्तु इन श्लोकों में आकाश, अग्नि, आदि जड़-देवों का तथा विष्णु, प्रजापति आदि कल्पित देवों का ध्यान करने का कथन प्रसंगविरुद्ध होने से प्रक्षिप्त है । क्योंकि मनु ने 123 श्लोक में परमात्मा के अग्नि, प्रजापति नाम तो गौणिक माने है, और एक परमात्मा को ही उपास्यदेव माना है । और इन श्लोकों में एकेश्वरवाद से विरुद्ध अनेकदेवतावाद और जड़-पूजा का कथन होने से ये श्लोक मनु-सम्मत नही है ।
2. अन्तर्विरोध- (क) मनु ने एक परमात्मा को ही उपास्यदेव और उसका ध्यान अपनी आत्मा में करने का उपदेश किया है । परन्तु इन श्लोकों में परमात्मा से भिन्न आकाश, वायु आदि जड-देवों तथा विष्णु आदि कल्पित देवों के ध्यान का कथन मनु से विरुद्ध है । (ख) मनु ने एक परमात्मा के ही (123 श्लोक मे) इन्द्र, अग्नि, प्रजापति आदि गौणिक नाम माने है, इनको पृथक् पृथक् उपास्यदेव नहीं माना है । परन्तु इन श्लोकों में शरीरांगों मे विभिन्न स्थानों पर पृथक्-पृथक् देवों का ध्यान बताना मनु से विरुद्ध है । और गुदा तथा शिश्नेन्द्रिय में भी ध्यान करने की बात अज्ञानपूर्ण एवं उपहास्यस्पद ही है । इस विषय में मनु की मान्यता को समझने के लिये 2/100-104, 6/65, 72-74, 12/85, 91, 118, 119, 122, 125 इत्यादि श्लोक विशेष रूप से देखने चाहिये । अतः अन्तर्विरोधों एवं प्रसंग-विरुद्ध होने से ये दोनों श्लोक प्रक्षिप्त है ।
टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार