Manu Smriti
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एवं स भगवान्देवो लोकानां हितकाम्यया ।धर्मस्य परमं गुह्यं ममेदं सर्वं उक्तवान् ।।12/117
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
इस प्रकार विद्वानों के राजा मनु ने संसारोपकारार्थ यह सब धर्म के गुप्त रहस्य मुझसे वर्णन किये थे जो मैंने तुमसे वर्णन किये हैं।
टिप्पणी :
इस श्लोक से स्पष्ट प्रतीत होता है कि यह स्मृति भृगु संहिता है मनुस्मृति नहीं।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
यह (12/117वां) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है- 1. प्रसंगविरोध- प्रस्तुत प्रसंग निःश्रेयस कर्मों के वर्णन का है । 116 वें श्लोक मे निःश्रेयस कर्मों के वर्णन की समाप्ति का संकेत है । तदनन्तर उससे सम्बद्ध उसी विषय का उपसंहारात्मक वर्णन किया गया है । अभी वह वर्णन पूरा नहीं हुआ है कि इस श्लोक ने धर्मोपदेशक के पूर्ण होने का बीच में ही कथन कर दिया है । इसलिये यह श्लोक प्रसंग-विरुद्ध होने से असंगत है । 2. शैली-विरोध- इस ग्रन्थ के 1/2-4 श्लोकों से स्पष्ट है कि ऋषियों ने मनु से प्रश्न किये और मनु ने ही उनका उत्तर दिया है । अतः यह समस्त शास्त्र मनुप्रोक्त है । परन्तु इस श्लोक में उससे विपरीत बात कही है अर्थात् भगवान् मनु ने इस शास्त्र का उपदेश मुझे (भृगु को) किया है । अतः स्पष्ट है कि किसी भृगु के भक्त ने इस श्लोक को बनाकर मिलाया है । इस विषय़ में इस ग्रन्थ में लिखी भूमिका का शैलीगत आधार विशेषरूप से द्रष्टव्य है । टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
 
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