Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
भृगुजी कहते हैं कि हमने मुक्ति प्राप्त करने के अर्थ वर्णाश्रम और प्रत्येक धर्म को बतलाया अब इसके उपरान्त शास्त्र के गुप्त रहस्य को बतलाते हैं।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
यह (12/107 वां) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है-
1. प्रसंग-विरोध- (क) प्रस्तुत-प्रसंग का संकेतक-श्लोक 83 वां है । उसमें नैश्श्रेयस-कर्मों का वर्णन किया है । उसी श्लोक में कहे धर्म क्रिया शब्द का स्पष्टीकरण और विशेष-वर्णन (105-115) श्लोकों में किया गया है । इनके मध्य में यह श्लोक उस प्रसंग को भंग करने के कारण अनावश्यक है ।
(ख) मनु ने मोक्ष-कर्मों के प्रारम्भ का संकेत 82 वें श्लोक में दिया है और उन कर्मों की समाप्ति का संकेत 116 वे श्लोक में दिया है । परन्तु इस 107 वें श्लोक ने इस प्रसंग को बीच में ही समाप्त कर दिया है । जिससे स्पष्ट है कि यह श्लोक मनु-प्रोक्त नही है । मनु तो एक प्रसंग को एकत्र ही पूर्ण रूप से कहते है ।
(ग) यदि इस श्लोक में मोक्ष कर्मों की समाप्ति मानी जाये तो अपूर्ण रहती है अगले श्लोकों की विषय़वस्तु भी इस श्लोक के अनुसार नही है । क्योंकि इस श्लोक में कहा है कि अब आगे इस मानवाशास्त्र का रहस्य बताया जायेगा । परन्तु अगले श्लोकों में इस प्रसंग का अभाव ही है प्रत्युत मोक्ष के कर्मों मे निर्दिष्ट धर्मचिन्ता को स्पष्ट किया गया है । अतः यह श्लोक प्रक्षिप्त है ।
2. शैली-विरोध- (क) मनु के पास (1/2 – 4 श्लोकों मे) ऋषियों ने आकर धर्मजिज्ञासा की थी और मनु ने प्रवचन द्वारा श्रूयताम् निबोधत इत्यादि क्रियाओं के प्रयोग से उसका समाधान किया । परन्तु इस श्लोक मे उपदिश्यते क्रिया का प्रयोग उस शैली से विपरीत है । (ख) और इस श्लोक में कहा हैं – मानवस्य शास्त्रस्य=मनुप्रोक्तशास्त्र का यह मनु की शैली नही है । प्रथम तो मनु अपना नाम लेकर कहीं उपदेश नहीं करते और अपने प्रवचन को वे स्वयं शास्त्र शब्द से भी नही कहते । अतः स्पष्ट है कि इस श्लोक की रचना किसी परवर्ती व्यक्ति ने मनु के नाम से की है अतः यह श्लोक प्रक्षिप्त है ।
टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार