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--CHAPTER NUMBER--
1. सृष्टि उत्पत्ति एवं धर्मोत्पत्ति विषय
2. संस्कार एवं ब्रह्मचर्याश्रम विषय
3. समावर्तन, विवाह एवं पञ्चयज्ञविधान-विधान
4. गृह्स्थान्तर्गत आजीविका एवं व्रत विषय
5. गृहस्थान्तर्गत-भक्ष्याभक्ष्य-देहशुद्धि-द्रव्यशुद्धि-स्त्रीधर्म विषय
6. वानप्रस्थ-सन्यासधर्म विषय
7. राजधर्म विषय
8. राजधर्मान्तर्गत व्यवहार-निर्णय
9. राज धर्मान्तर्गत व्यवहार निर्णय
10. चातुर्वर्ण्य धर्मान्तर्गत वैश्य शुद्र के धर्म एवं चातुर्वर्ण्य धर्म का उपसंहार
11. प्रायश्चित विषय
12. कर्मफल विधान एवं निःश्रेयस कर्मों का वर्णन
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COMMENTARY
षण्णां एषां तु सर्वेषां कर्मणां प्रेत्य चेह च ।श्रेयस्करतरं ज्ञेयं सर्वदा कर्म वैदिकम् ।।12/86
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
Commentary by
: स्वामी दर्शनानंद जी
प्रथम कहे हुये छः कर्मों में वेदानुसार कर्म अर्थात् आत्मज्ञान सब से श्रेष्ठ है और इससे संसार में सुख और मृत्यु के उपरान्त मुक्ति लाभ होता है।
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Commentary by
: पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
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Commentary by
: पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
इन सब छः कर्मों में (प्रेत्य च इह च) परलोक और इस लोक दोनों की अपेक्षा से वैदिक कर्म अर्थात् वेदाभ्यास को ही अधिक कल्याणकारी समझना चाहिये।
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