Manu Smriti
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सर्वेषां अपि चैतेषां शुभानां इह कर्मणाम् ।किं चिच्छ्रेयस्करतरं कर्मोक्तं पुरुषं प्रति ।।12/84
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
इन सब शुभ कर्मों में से प्रत्येक कर्म मनुष्यों की मोक्ष के हेतु अत्यन्त कल्याण करने वाले हैं।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
यह (12/84 वां) श्लोक निम्नलिखित कारण से प्रक्षिप्त है- 1. प्रसंग-विरोध – यह श्लोक पूर्वापर श्लोकों को भंग कर रहा है । क्योंकि 83 वें श्लोक में मोक्ष देने वाले छः कर्मों का उल्लेख किया है और 85 वें में उन सभी क्रमों में आत्म-ज्ञान को मोक्ष-प्राप्ति में सर्व-प्रमुख बताया है । परन्तु 84 वें श्लोको में न तो कोई विशेष बात ही कही है और वह पूर्वापर-प्रसंग को मिलाने में साधक ही है । अतः यह श्लोक प्रक्षिप्त है । ये सभी (12/86-90) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है- 1. प्रसंग-विरोध- यहां पूर्वापर श्लोकों का प्रसंग आत्म-ज्ञान का है । 85 वें श्लोक में मोक्षप्राप्ति के लिये आत्म-ज्ञान को सर्वोत्कृष्ट माना है । और 91 वें श्लोक में भी आत्म-ज्ञान का ही प्रसंग है । इस प्रकार पूर्वापर के श्लोकों में परस्पर संबन्ध है है । इन श्लोकों ने उस प्रसंग को भंग कर दिया है । इसलिये ये प्रसंग-विरुद्ध होने से प्रक्षिप्त श्लोक है । 2. विषय-विरोध- मोक्ष-प्राप्ति के लिये जिन छः कर्मों का परिगणन किया है, उनमें आत्म-ज्ञान को मुख्य माना है । अतः प्रस्तुत विषय है मोक्ष प्राप्ति । उस विषय में वैदिक कर्मों के भेद (प्रवृत्त एवं निवृत्त कर्मों के कारण) बताना, और उन कर्मों का प्रथक्-प्रथक् फल बताना विषय विरुद्ध है । (88-90) श्लोकों में पूर्वापर विषय से भिन्न ही प्रवृत्ति-निवृत्ति कर्मों का विषय प्रारम्भ किया गया है । 3. अवान्तर-विरोध- 86 श्लोक में मोक्ष के छः कर्मों से वैदिक कर्मों को अधिक कल्याण कारक बताया है । इसीलिये ’श्रेयस्करतरम्’ शब्द में तुलना बताने वाला आतिशयिक प्रत्यय लगाया है । जिससे स्पष्ट है कि इन छः कर्मों से वैदिक कर्म भिन्न है । परन्तु 87 वें श्लोक में कहा है कि ये सभी छः कर्म वैदिककर्मो के अन्तर्गत ही है . यदि ये सभी कर्म वैदिक है, तो पूर्व श्लोक में वैदिक कर्मों की पृथक् उत्कृष्टता का कथन क्यों किया है ? और यदि ये कर्म मोक्ष देने वाल है, परन्तु 88 वे मे वैदिक कर्मो में प्रवृत्त कैसे हो सकती है ? इस प्रकार प्रक्षेप करने वाले के श्लोकों में परस्पर विरोध है । और यह विरोध मनुप्रोक्त न होने से मौलिक नही है । 4. अन्तर्विरोध- 83 वें श्लोक में मोक्ष देने वाले जो छः प्रकार के कर्म लिखे है, उन सभी को वेदोक्त माना है । इन कर्मों से (86 वें में) वैदिक कर्मों को पृथक् और श्रेष्ठ बताया है और इन छः कर्मों को (जिनमें वेदाभ्यास भी है) वैदिक न मानना परस्पर-विरोधी कथन है । अतः यह प्रतीत होता है कि इन श्लोकों का रचयिता कोई मनु से भिन्न है, जिसने पूर्वोक्त कर्मों के विषय में ऐसी खण्डनात्मक बातें लिखी है । टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
 
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