Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
वेद पाठ, जप, ज्ञान, इन्द्रियनिग्रह, अहिंसा (किसी जीव को न मारना) गुरु की सेवा शुश्रुषा करना यह सब कर्म बड़े कल्याणकारी हैं।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
वेदों का अभ्यास(12/94-103), तप=व्रतसाधना(12/104), ज्ञान=सत्यविद्याओं की प्राप्ति (12/104), इन्द्रियसंयम (12/92), धर्मक्रिया=धर्मपालन एवं यज्ञ आदि धार्मिक क्रियाओं का अनुष्ठान और आत्मचिन्त=परमात्मा का ज्ञान एवं ध्यान, ये छः मोक्ष-प्रदान करने वाले सर्वोत्तम कर्म है ।
टिप्पणी :
अनुशीलन- उपलब्ध संस्करणों में इस श्लोक के तृतीय पाद में अहिंसा गुरुसेवा च पाठ मिलता है । यह पाठभेद किया गया है जो मनुस्मृति के अनुरूप नही है । यहां धर्मक्रियाsत्मचिन्ता च पाठ ही उपयुक्त है । इसकी पुष्टि में निम्न प्रमाण है—
(1) 83 वें श्लोक में निःश्रेयस कर्मों की परिगणना है, परिगणना के बाद छह कर्मों से सम्बन्धित व्याख्यान 85-115 श्लोकों में है । इस व्याख्यान में अहिंसा और गुरुसेवा का कही उल्लेख नही है अपितु आत्मज्ञान और धर्म क्रिया का है । श्लोकार्थ में ततत् वर्णन वाले श्लोकों की संख्या दे दी है ।
(2) मनु ने सात्विक कर्मों को ही निःश्रेयसकर्म माना है । इस श्लोक में अन्य सभी कर्म तो वही है, केवल दो में पाठभेद कर दिया है । सात्विक कर्मों का वर्णन है 12/31 में है । वही पाठ यहां ग्रहण करना मनुसम्मत है क्योंकि वही कर्म मनु-मत से सर्वश्रेष्ठ है और वही मुक्तिदायक हो सकते है । अतः प्रस्तुत पाठ सही है ।
टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
1) वेदाभ्यास, (2) तप, (3) ज्ञान, (4) इन्द्रियों का संयम, (5) अहिंसा, (6) गुरु-सेवा यह निश्रेयस अर्थात् मोह के देने वाले कर्म हैं।