Manu Smriti
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यादृशेन तु भावेन यद्यत्कर्म निषेवते ।तादृशेन शरीरेण तत्तत्फलं उपाश्नुते ।।12/81

 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
जो जिस विचार से किसी काम को करता है वह उसी प्रकार का शरीर धारण करके उस कर्म के फल को भोग करता है अर्थात् जो धर्म के विचार से उपकार व भलाई करते हैं वह धर्म का फल भोगते और जो यश के विचार से भलाई करते हैं वह यश प्राप्त करते हैं। अथवा यह समझ कर कि सतोगुणी कर्मों के करने से सतोगुणी शरीर को व रजोगुणी कर्मों से रजोगुणी शरीर को तथा तमोगुणी कर्म करने से तमोगुणी शरीर को प्राप्त करते हैं।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
मनुष्य जैसी अच्छी या बुरी भावना से जैसा अच्छा या बुरा कर्म करता है, वैसे-वैसे ही शरीर पाकर उन कर्मों के फलों को भोगता है ।
टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
जिस-जिस भाव से जो-जो कर्म किया जाता है उस-उस शरीर से वह-वह फल भोगा जाता है।
 
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