Manu Smriti
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उपाध्यायान्दशाचार्य आचार्याणां शतं पिता ।सहस्रं तु पितॄन्माता गौरवेणातिरिच्यते ।2/145
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
उपाध्याय से दशगुणा आचार्य मान्य है, आचार्य से सौ गुणा पिता मान्य है और पिता से सहस्र गुणा अधिक माता मान्य है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
यह २।१२० (२।१४५) वाँ श्लोक निम्नलिखित कारण से प्रक्षिप्त है । (क) यह श्लोक पूर्वापर - प्रसं से विरूद्ध है । २।११९ श्लोक में गुरूकुल में रहते हुए ब्रह्मचारी के माता - पिता कौन हैं, यह बताया है । २।१२१ में जन्म देने वाले तथा वेदज्ञान देने वाले पिताओं की तुलना की गई है । इनके मध्य में उपाध्याय को आचार्य से, आचार्य की पिता से, पिता की माता से तुलना बताना प्रकरण को भंग कर रहा है अतः असंगत है । (ख) इस श्लोक में मनु की मान्यता से स्पष्ट विरोध है । मनु ने २।१११ में विद्या को सर्वोपरि माना है २।१२१ में भी जन्म देने वाले पिता से ज्ञान देने वाले पिता (आचार्य) को अधिक बड़ा माना है । किन्तु इस श्लोक में जन्म देने वाले पिता को आचार्य से अधिक माननीय माना है । इस अवान्तर विरोध तथा मनु की मान्यता से विरूद्ध होने से यह श्लोक प्रक्षिप्त है ।
 
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