Manu Smriti
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बन्धुप्रियवियोगांश्च संवासं चैव दुर्जनैः ।द्रव्यार्जनं च नाशं च मित्रामित्रस्य चार्जनम् ।।12/79
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
बान्धवों तथा प्रिय लोगों से वियोग, दुर्जनों का संसर्ग व रहन सहन तथा धन का संचित होना तदनन्तर उसका लोप (नाश) हो जाना, मित्र शत्रु का मिलना इन सब को पाते हैं।
टिप्पणी :
धन संचय होकर नाश हो जाना एक बड़ा भारी क्लेश है और धन किसी के पास भी तीन पीढ़ी (पुस्त) से अधिक नहीं ठहरता अतएव इससे पूरा दुःख है तथा आत्मा को कुछ लाभ नहीं हो सकता अतः लक्ष्मी की अभिलाषा करने वालों को धर्म के कार्यों में लगना चाहिये।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
 
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