Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
मृग, हाथी इन दोनों में से किसी के चुराने से बगला होता है, घोड़ा के चुराने से बाघ होता है, फल, फूल इन दोनों में से किसी एक के चुराने से बन्दर होता है, स्त्री के चुराने से रीछ होता है, पीने के योग्य जल को चुराने से पपीहा नाम पक्षी होता है, सवारियों को चुराकर ऊँट होता है, पशुओं को चुराकर बकरा होता है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये सभी (12/53-72) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है-
1. प्रसंग-विरोध- ये सभी श्लोक पूर्वापर-प्रसंग से विरुद्ध है । 52 वें श्लोक में कहा है कि इन्द्रियों को विषयासक्त करने से अविद्वान मनुष्य दुःखस्वरूप जन्मों को प्राप्त करते हैं । और 73-74 श्लोकों में उसी बात को पूरी करते हुए कहा है कि विषयासक्त पुरुष जैसे-जैसे विषयों का सेवन करता है, वैसे-वैसे उसकी उनमें रुचि बढ़ने लगती है । इन पूर्वापर के श्लोकों के मध्य में इन श्लोकों ने उस प्रसंग को भंग किया है । अतः अप्रासंगिक होने से ये श्लोक प्रक्षिप्त है । और 52 वें श्लोक की 53 वें श्लोक के साथ तथा 72 वें श्लोक की 73 वें श्लोक के साथ किसी प्रकार भी संगति न होने से ये श्लोक प्रसंग-विरुद्ध है ।
2. अन्तर्विरोध- (क) मनु की मान्यता में 39-51 श्लोकों में सत्वादि गुणों के न्यून व अधिकता के कारण विभिन्न योनियों में जीवों का जाना माना है । परन्तु इन श्लोकों में इस मान्यता का विरोध है और 53 वें श्लोक में एक-एक कर्म के आधार पर योनियों में जाने का कथन किया गया है और अग्रिम श्लोकों का यही आधार-श्लोक है । मनु ने 12/74 श्लोक में भी कर्मों के अभ्यास से योनियों की प प्राप्ति मानी है ।
(ख) 54 वें श्लोक में जीवों का घोर नरक-लोक में जाने का कथन मनु से विरुद्ध है । मनु ने किसी स्थान-विशेष को नरक नही माना है । इस विषय में 4/87-91 श्लोकों की समीक्षा द्रष्टव्य है ।
(ग) और जैसे 54-72 श्लोकों में दुष्कर्म करने से विविध-योनियों का परिगणन किया है, वैसे सुकर्म करने से योनियों का वर्णन क्यों नही है ? क्या सभी सुकर्म करने वालों के कर्म समान हो सकते है ? और इसलिये वे सभी मनुष्य-योनि में चले जाते है यह कदापि सम्भव नही है । और जब एक-एक दुष्कर्म से कुत्ते आदि की योनि में जाना पड़ता है, तो उसके अच्छे कर्मों का फलकथन मनु ने क्यों नही किया ? इससे स्पष्ट है कि यह कर्मानुसार योनि-प्राप्ति की मान्यता मनु की नही है । क्योंकि मनु तो यह मानते है कि अच्छे या बुरे कर्मों के करने से जैसे सत्वादि गुणों की प्रवृत्ति जीवों की होती है, वैसे-वैसे ही वे योनियाँ प्राप्त करते है ।
(घ) 59, 71-72 श्लोकों में मैत्राक्ष ज्योतिक आदि प्रेत-योनियों का वर्णन भी मनुसम्मत नहीं है । क्योंकि मनु ने प्रेत नामक कोई योनि-विशेष नहीं मानी है । प्रेत-योनि की कल्पना पौराणिक-युग की देन है ।
(ङ) 69 वें श्लोक में कहा है कि स्त्रियाँ भी दुष्कर्मों के कारण दुष्कर्म करने वालों की पत्नियाँ बनती है । यह मान्यता भी मनु-सम्मत नही हैं । क्योंकि स्त्रियाँ अगले जन्मों में स्त्रियां ही बने, यह अवैदिक सिद्धान्त है । मनु यदि ऐसा मानते होते तो सत्वादि गुणों के आधार पर जो 40-51 श्लोकों में विभिन्न योनियों में जाना माना है वहाँ स्त्रियों का पृथक् निर्देश अवश्य करते । अतः यह मान्यता मनुसम्मत नही है । क्योंकि जीवात्मा स्त्रीलिंगादि से रहित है ।
(च) 56-57 श्लोकों में शराबी, चोरी आदि कर्म करने वाले ब्राह्मण को किन-योनियों में जाना पड़ता है ? यह कथन जन्मना वर्णव्यवस्था का प्रतिपादक होने से मनु से विरुद्ध है । मनु के अनुसार जो शराब पीता है और चोरी करता है, वह ब्राह्मण ही नही है फिर ऐसे दुष्कर्म-रत को ब्राह्मण मानना जन्मना वर्ण व्यवस्था को सिद्ध करना है और यह कथन मनु से विरुद्ध है ।
3. अवान्तरविरोध- (क) 55 वें श्लोक में ब्रह्महत्यारे को कुत्ता, सूकर, गधा, ऊंट, गाय, बकरी, भेड़ आदि विभिन्न योनियों में जाने का वर्णन है । क्या इन सभी योनियों में जाना पड़ता है, अथवा इनमें से किसी एक में ? यह स्पष्ट न होने से यह विधान-संशयास्पद ही है । ऐसे ही 56 इत्यादि श्लोकों वर्णन किया है । और यहाँ ब्रह्महत्यारे को कुत्ते की योनि लिखी है और 62 वें में रस चुराने वाले को कुत्ते की योनि लिखी है । इसी प्रकार 55 वें में ब्रह्महत्यारे को पक्षी की योनि लिखी है और 63 वें में तेल चुराने वाले को पक्षी की योनि लिखी है । इससे स्पष्ट है कि प्रक्षेपक की (53 श्लोकोक्त) एक-एक कर्म के आधार पर योनिविशेष की गणना उसके अपने कथन से ही विरुद्ध है । क्योंकि उसने स्वयं ब्रह्महत्या करने वाले और रस चुराने वाले की एक से अधिक कर्मों के आधार पर कुत्ते की योनि मानी है ।
(ख) और 61 वें श्लोक में विविध रत्नों की चोरी करने वाले मनुष्य को सुनार की योनि में जाना माना है । और 57 में श्लोकं में चोर-ब्राह्मण के लिये विभिन्न योनियों का परिगणन किया है । जब एक सामान्य नियम मानव-मात्र के लिये कह दिया है तब वर्णविशेष के लिए प्रथक् कथन करना उचित नहीं है । और यदि कोई उचित मानता ही है, तो क्षत्रियादि के चोरी करने पर क्या व्यवस्था होगी ?ऐसा कथन न करने से स्पष्ट है कि ये श्लोक विभिन्न प्रक्षेपकों ने बनाकर मिलाये है । और जिस समय व्यवसाय के आधार पर सुनारादि उपजातियों का प्रचलन प्रारम्भ हो गया, उस समय किसी ने इन श्लोकों को बनाया है, अतः ये सभी श्लोक परवर्ती है । क्योंकि मनु के अनुसार ब्राह्मणादि चार ही वर्ण होते है ।
4. शैली विरोध- (क) इन श्लोकों की शैली निराधार, निन्दायुक्त अतिशयोक्तिपूर्ण और परोक्ष-भयप्रदर्शनमात्र है । मनु की शैली में ऐसी बातों का सर्वथा अभाव होता है । (ख) और इन श्लोकों में अयुक्तियुक्त बातों का वर्णन और एक योनि में जाने के विभिन्न कर्मों को कहकर एक कर्म को योनि प्राप्त का कारण कहना , इत्यादि परस्पर विरुद्ध बातों का कथन मनु की शैली से विरुद्ध है । (ग) मनु ने सर्वत्र समता तथा न्यायोचित शैली से प्रवचन किया है , किन्तु यहाँ पक्षपातपूर्ण वर्णन किया गया है । जैसे-55वें श्लोक में ब्रह्महत्यारे का विभिन्नयोनियों में जाना लिखा है, क्षत्रियादि के हत्यारे का क्यों नही ? 58 वें में गुरु-पत्नी से संभोग करने वाले को दण्डस्वरूप योनियो में जाने का कथन है , दूसरे पुरुषों की स्त्रियों से संभोग करने वाले को दण्ड क्यों नही ? इस प्रकार का वर्णन मनु कहीं नही करते, क्योंकि मनु की शैली में समता का भाव रहता है । (घ) मनु की शैली में चारवर्णों के धर्मों का वर्णन है । परन्तु इनमें (61 वें में) सुनारादि उपजातियों का कथन परवर्ती है । मनु के शास्त्र में इन उपजातियों के लिये कोई स्थान नही है । अतः शैली-विरोध के कारण य सभी श्लोक प्रक्षिप्त है । ये छः (12/75-80) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है-
1. प्रसंग-विरोध- (क) यहाँ पूर्वापर श्लोको में शुभाशुभ कर्मों के फल का सामान्य रूप स कथन किया गया है । इसी प्रसंग से पूर्वापर श्लोकों की सम्बद्धता है । परन्तु (75-80) श्लोकों में तामिस्रादि नरकों को स्थान-विशेष मानकर उनमें दुःखों के भोगने की बातें, और दुःखमय योनियों की प्राप्ति का कथन उस प्रसंग को भंग करने के कारण ये श्लोक अप्रासंगिक है । (ख) (39-51) श्लोकों में शुभाशुभ कर्मों के फल और शुभाशुभ गतियों का वर्णन किया जा चुका है । उस प्रसंग के समाप्त होने पर पुनः दुःखप्राप्ति रूप प्रसंग का प्रारम्भ करना असंगत है ।
2. अन्तर्विरोध- (क) मनु ने 12/74 में ’तास्वह योनिषु’ कहकर स्पष्ट किया है कि इसी संसार में विभिन्न योनियों में शुभाशुभ कर्मानुसार जीवों को जाना पड़ता है । और 39 वें श्लोक मे भी इस संसार में ही विभिन्न गतियाँ मानी है । और इन श्लोकों में जो विभिन्न योनियाँ मानी है, वे सब इस संसार में ही है । पुनरपि तामिस्रादि नरकों लोकविशेष मानने की बाते कहना पूर्वोक्त से विरुद्ध है । और नरकादि के विषय में मनु की मान्यता का स्पष्टीकरण 4/87-91 श्लोकों की समीक्षा में द्रष्टव्य है । (ख) और 78-80 श्लोकों में ऐसी-ऐसी बातों का उल्लेख है जिनकों पापकर्मों का फल कहना मनुसम्मत नही हो सकता । जैसे -80 में वे बुढ़ापे को प्राप्त करना, मृत्यु को प्राप्त करना, (79 मे) बन्धुओं का वियोग होना, मित्र-प्राप्त करना इत्यादि, जिनको कर्म-फलरूप दुख मानना उचित नहीं है । क्योंकि बुढ़ापा, मृत्यु आदि तो अपरिहार्य है, इनसे शुभकर्म करने वाला भी नही बच सकता । अतः इन्हें दुष्कर्मों का फल कहना ठीक नहीं । मनु ऐसी अयुक्तियुक्त बाते कदापि नहीं कह सकते ।
टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार