Manu Smriti
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यत्तु दुःखसमायुक्तं अप्रीतिकरं आत्मनः ।तद्रजो प्रतीपं विद्यात्सततं हारि देहिनाम् ।।12/28

 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
जब आत्मा को दुखी और विवाद का इच्छुक देखें तब रजोगुणी प्रधान समझें और रजोगुण सब प्राणियों को अति शीघ्र हानि पहुँचाने वाला और परित्याग योग्य है।
टिप्पणी :
श्लोक में आत्म से महत्व अर्थात् मन से अभिप्राय है जीवात्मा से नहीं।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
जब आत्मा और मन दुःखसंयुक्त प्रसन्नतारहित विषय में इधर-उधर गमन आगमन में लगे तब समझना कि रजोगुण प्रधान, सत्वगुण और तमोगुण अप्रधान है । (स. प्र. नवम समु.)
टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
और जो दुःख से मिला हुआ, अपने को प्रीति से हटाने वाला जान पड़े उसको रजोगुण समझना चाहिये। यह प्राणियों को (सततम्) सदा, (अप्रतिघम् हारि) कुमार्ग की ओर खींचने वाला होता है।
 
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