Manu Smriti
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तत्र यत्प्रीतिसंयुक्तं किं चिदात्मनि लक्षयेत् ।प्रशान्तं इव शुद्धाभं सत्त्वं तदुपधारयेत् ।।12/27

 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
जब आत्मा में प्रेम के चिन्ह पाये जावें और इच्छा आदि के न होने से शान्ति दृष्टिगोचर हो और चित्त में शुद्धि का विचार हो तो उस समय सतोगुणी बलवान जानना चाहिये।
टिप्पणी :
श्लोक में आत्म से महत्व अर्थात् मन से अभिप्राय है जीवात्मा से नहीं।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
उसका विवेक इस प्रकार करना चाहिए कि जब आत्मा में प्रसन्नता मन प्रसन्न प्रशान्त के सदृश शुद्धभानयुक्त वर्ते तब समझना की सत्वगुण प्रधान और रजोगुण तथा तमोगुण अप्रधान है । (स. प्र. नवम समु.)
टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(तत्र) इनमें से (आत्मनि) अपने में (यत्-किंचित्) जो कुछ (प्रीति संयुक्तम्) प्रीति से मिला हुआ (प्रशान्तम् इव) शान्त के समान (शुद्ध + आभम्) शुद्ध प्रकाश वाला जान पड़े उसी को (सत्वम्) सत्व (उपधारयेत्) समझे।
 
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