Manu Smriti
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यो यदैषां गुणो देहे साकल्येनातिरिच्यते ।स तदा तद्गुणप्रायं तं करोति शरीरिणम् ।।12/25

 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
इन तीनों गुणों में से जो गुण जिस शरीर में अधिक होता है उस शरीर को उसी गुण वाला कहा जाता है। यद्यपि उस शरीर में दूसरे गुण भी कुछ न कुछ अंश में वर्तमान रहते हैं तो भी एक गुण की अधिकता से उसी गुण के कार्य होते हैं।
टिप्पणी :
श्लोक में आत्म से महत्व अर्थात् मन से अभिप्राय है जीवात्मा से नहीं।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
जो गुण इन जीवों के देह में अधिकता से वर्तता है वह गुण उस जीव को अपने सदृश कर लेता है । (स. प्र. नवम समु.)
टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
इनमें से जो गुण शरीर में प्रधानता से विद्यमान होता है वही गुण शरीरस्थ जीवात्मा को उसी गुण वाला बना देता है। अर्थात् सत्वगुण की प्रधानता से जीव सत्वगुण वाला, रजोगुण की प्रधानता से रजोगुणी, तमोगुण की प्रधानता से तमोगुणी हो जाता है।
 
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