Manu Smriti
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एता दृष्ट्वास्य जीवस्य गतीः स्वेनैव चेतसा ।धर्मतोऽधर्मतश्चैव धर्मे दध्यात्सदा मनः ।।12/23
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
अपनी बुद्धि से जीव की दशा को देखकर और ध्यानपूर्वक उसके इस फल को विचार कर नित्य अपनी इन्द्रिय और मन को स्थिर रक्खें अर्थात् पाप से बचकर धर्म करता रहे।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये सभी (12/10-23) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है- 1. प्रसंग-विरोध- मनु ने 12/3-4 श्लोको के वर्णन से स्पष्ट किया है कि प्रस्तुत विषय़ कर्म-फल विधान का है । तदनुसार ही पहले त्रिविध गतियों का वर्णन होना चाहिये । इसलिये 5-9 श्लोकों की 24-51 श्लोकों से पूर्णतः संगति है । 10-23 श्लोकों में इस प्रसंग से भिन्न बातों का कथन होने से अप्रासंगिक वर्णन है । 2. विषय-विरोध- 11/266, 12/3-4, 51, 82 श्लोकों से स्पष्ट है कि प्रस्तुत विषय ’कर्मफलविधान’ का है । परन्तु 10-14 श्लोकों में त्रिदण्डों का वर्णन, त्रिदण्डों, क्षेत्रज्ञ और भूतात्मा की परिभाषाओं का कथन है, जीवात्मा और क्षेत्रज्ञ में भेद, इत्यादि वर्णन विषयबाह्य होने के कारण ये प्रक्षिप्त है । 3. अन्तर्विरोध- (क) 12-13 श्लोकं में भूतात्मा, क्षेत्रज्ञ और जीवात्मा में भेद दिखाया है । अर्थात् जो कर्म करता है वह भूतात्मा, जो आत्मा को कर्म मे प्रवृत्त करता है, वह क्षेत्रज्ञ और सुख-दुख का अनुभव करने वाला जीवात्मा है । यह परस्पर विरोधी कथन है । क्योंकि कर्म करने वाला ही कर्म-फलों को भोगता है । कर्म अन्यत्र कोई करे और फल दूसरा भोगे, यह मनु की मान्यता नही है । (ख) और 14-15 श्लोकों में कहा है कि क्षेत्रज्ञ और महान् सभी प्राणियों मे स्थित परमात्मा को व्याप्त करके स्थित है और उस परमात्मा के शरीर से असंख्य जीव निकलते है । यह सभी कथन 1/6-16, 19 इत्यादि श्लोकों से विरुद्ध है । परमात्मा का शरीर और जीवात्माओं की उत्पत्ति दोनों बातें अवैदिक होने से मनुप्रोक्त कदापि नहीं है । (ग) 17,20-22 श्लोकों में स्वर्ग व नरक को लोक विशेष मानकर कथन किया है । यह मनु-सम्मत नहीं है । मनु तो सुख-विशेष को स्वर्ग और दुःख विशेष को नरक मानते है । एतदर्थ 3/79, 9/28 श्लोक द्रष्टव्य है । और 20-21 श्लोकों का यह कथन भी मिथ्या है कि आत्मा स्वर्ग में पञ्चमहाभूतों से युक्त रहता है और नरक में पञ्चभूतों से रहित रहकर दुःख भोगता है । क्योंकि भोगायतन शरीर के बिना सुख व दुःख का भोग सम्भव है । टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
 
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