Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
छल से किसी वस्तु का लेना, जीव हिंसा करना, पर स्त्री रमण करना, यह तीन देह (शरीर) से उत्पन्न होने वाले पाप हैं।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
शारीरिक अधर्म तीन है—चोरी हिंसा अर्थात् सब प्रकार के क्रूर कर्म *(परदारोपसेवा), रंडीबाजी या व्यभिचारादि कर्म करना । (उपदेश मञ्जरी 34)
टिप्पणी :
* (अविधानतः) शास्त्रविरुद्ध रूप में करना (शास्त्र में कुछ हिंसाएँ विहित है, जैसे- आपत्काल में आततायी की हिंसा, हिंस्रपशु की हिंसा, (युद्ध में शत्रुओं की हिंसा आदि) । ............टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
शरीर सम्बन्धी दुष्ट कर्म तीन हैं। पहला (अदत्तानाम उपादानम) अन्याय से दूसरे का धन लेना, दूसरा (अविधानतः हिंसा) शास्त्र के विरुद्ध किसी को पीड़ा देना, तीसरा पराई स्त्री से सम्पर्क। ’शास्त्र के विरुद्ध पीड़ा‘, देने का तात्पर्य यह है कि कुछ प्रकार की पीड़ायें जो प्राणी के हित के लिये दी जाती हैं ’हिंसा‘ की कोटि‘ में नहीं आती। जैसे गुरु शिष्य को दण्ड दे, या राजा कसी अपराधी को, या वैद्य किसी रोगी की चीर-फाड़ करे। यह सब हिंसा नहीं है। इनके अतिरिक्त किसी को पीड़ा देना, शरीर सम्बन्धी दुष्कर्म हैं।