Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
1-वन, 2-बन्धु (सम्बन्धी), 3-आयु, 4-कर्म, 5-विद्या वह पाँचवा मान्य तथा आदरणीय हैं। इनमें पहले से दूसरा, दूसरे से तीसरा इस ही प्रकार एक दूसरे से पूरक (उत्तम) हैं।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
वित्तं बन्धुः वयः कर्म एक - धन, दूसरे - बधुं, कुटुम्ब, कुल; तीसरी - आयु, चैथा - उत्तम कर्म पंच्चमी विद्या भवति और पांचवी - श्रेष्ठविद्या एतानि मान्यस्थानानि ये पांच मान्य के स्थान हैं, परन्तु यद् यद् उत्तरं तद् तद् गरीयः जो - जो परला है वह अतिशयता से उत्तम है धन से उत्तम बंधु, बंधु से अधिक आयु, आयु से श्रेष्ठ कर्म और कर्म से पवित्र विद्या वाले उत्तरोत्तर अधिक माननीय हैं ।
(स० प्र० दशम समु०)
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
(११) धन, बन्धुत्व, अवस्था, उत्तम कर्म और पांचवी विद्या, ये पांच मान्य के स्थान हैं। परन्तु धनवान् से बन्धु, बन्धु से वयोवृद्ध से श्रेष्ठकर्मा और श्रेष्ठकर्मा से वेदज्ञ उत्तरोत्तर अधिक माननीय हैं। अतः, ब्रह्मचारी यथायोग्य उपर्युक्त पांचों का मान करें।