Manu Smriti
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दशाब्दाख्यं पौरसख्यं पञ्चाब्दाख्यं कलाभृताम् ।त्र्यब्दपूर्वं श्रोत्रियाणां स्वल्पेनापि स्वयोनिषु ।2/134
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
एक गाँव अथवा एक शहर के निवासी गुण से रहित हों और दश वर्ष बड़े हों तो उनके साथ मित्रता का व्यवहार होता है, और गुणी हों और पाँच वर्ष बड़े हों तो उनके साथ भी मित्रता का व्यवहार होता है और वेद पढ़े हों और तीन वर्ष बड़े हों तो भी मित्रता का व्यवहार होता है। संबंधी हों तो अल्प समय ही में मित्रता होती है। यदि ऊपर लिखे आयु से अधिक अवस्था वाला हो तो वृद्ध और मान्य हैं।
टिप्पणी :
यह श्लोक का मिलाया हुआ है क्योंकि जब तक ब्रह्मचर्य आश्रम पूर्ण नहीं होता तब तक ब्राह्मण हो नहीं सकता। और दस वर्ष में ब्रह्मचर्य किसी प्रकार भी पूर्ण नहीं हो सकता।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये २।१०५ -११० (२।१३० - १३५) छः श्लोक निम्नकारणों से प्रक्षिप्त हैं - (क) ये श्लोक प्रसंग - विरूद्ध हैं । इस अध्याय में मुख्यरूप से ब्रह्मचर्याश्रम में वर्णधर्मों का वर्णन है । इस प्रकरण की समाप्ति करते हुए मनु लिखते हैं - ‘‘अनेन क्रमयोगेन................गुरौ वसन् संचिनुयात् ब्रह्माधिगमिकं तपः ।’’ (२।१३९) अर्थात् इन पूर्वोक्त विधियों के अनुसार ब्रह्मचारी गुरू के पास रहता हुआ वेद - ज्ञान के लिये तप करे । परन्तु इन श्लोकों में जो वर्णन है, उससे गृहस्थ के कत्र्तव्यों का सम्बन्ध है, ब्रह्मचारी के नहीं । क्यों कि - (२।१०५ - १०६) गुरूकुल में मामा, मामी, चाचा, श्वसुर, ऋत्विज, सास, बुआ मौसी आदि कैसे हो सकते हैं ? और गृहस्थ, में जाने से पूर्व ही सास - श्वसुर का संबन्ध कैसे बन जायेंगे ? और २।१०७ के अनुसार बड़े भाई की पत्नी (भाभी) और दूसरी स्त्रियों के गुरूकुल में न होने से ब्रह्मचारी प्रतिदिन उन्हें अभिवादन कैसे कर सकेगा ? और (२।१०८) गुरूकुल में बूआ, मौसी, और बड़ी बहन न होने से उनके साथ माता की तरह व्यवहार कैसे कर सकेगा ? अतः इस प्रकार के श्लोक प्रसंगविरूद्ध हैं । (ख) इन श्लोकों में मनु की मान्यता (२।११०) से विरूद्ध मान्यता का कथन है । मनु ने २।१११-११२ तथा २।१२५-१३१ श्लोकों के अनुसार गुणों के आधार पर ही बड़प्पन माना है । किन्तु इस श्लोक में जन्म से बड़प्पन की बात कही है । जैसे दशवर्ष के ब्राह्मण को १०० वर्ष के क्षत्रिय से बड़ा कहा है । यह अवस्था का निर्देश जन्म से बड़ा कहा है । यह अवस्था का निर्देश जन्म से बड़प्पन की पुष्टि कर रहा है । दश वर्ष का ब्राह्मण - बालक कैसे बिना विद्या पढ़े ही पिता हो सकता है ? मनु ने तो अन्यत्र (२।१२८ में) ‘अज्ञों भवति वै बालः पिता भवति मन्त्रदः’ कह कर ज्ञान के कारण बड़ा माना है और २।११२ में भी मान का आधार गुणों को माना है । अतः यह अवस्था की बात मनुविरूद्ध है । (ग) और मनु की वर्णव्यवस्था का आधार कर्म है, जन्म नहीं । यहाँ अल्पायु के ब्राह्मणकुमार को १०० वर्ष के क्षत्रिय से बड़ा कहना जन्म - मूलक वर्णव्यवस्था का बोधक है । अतः यह मनु के दूसरे वर्णनों से विरूद्ध होने के साथ पक्षपातपूर्ण कथन भी किया गया है । मनु जैसा विद्वान् ऐसी पूर्वापर विरूद्ध तथा प्रसंग - विरूद्ध बातें कदापि नहीं मान सकता । इसलिये ये श्लोक अर्वाचीन और प्रक्षिप्त है ।
 
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