Manu Smriti
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तपो वाचं रतिं चैव कामं च क्रोधं एव च ।सृष्टिं ससर्ज चैवेमां स्रष्टुं इच्छन्निमाः प्रजाः । ।1/25
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
इसके बनाने के बाद तप अर्थात् ¬प्रजापति इत्यादि गैर वाणी, रति अर्थात् चित्तों का सन्तोष, इच्छा, काम, क्रोध आदि प्रजा इन सबको बनाया।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
(१।२४-२५) ये दोनों श्लोक प्रक्षिप्त हैं । क्यों कि इनकी संगति इस प्रकरण से तथा मनु की शैली से विपरीत है । यहाँ प्रकरण वेदों के द्वारा कर्मों का ज्ञान कराने का (१।२१-२२ में) चल रहा था, २३ वें श्लोक में प्रसंगवश वेदोत्पत्ति को बताया गया और १।२६ श्लोक में फिर कर्मों का ही विवेचन किया गया है । अतः कर्मविवेक प्रकरण के बीच में नदी, सागर, नक्षत्र , ग्रहादि की सृष्टि की बात असंगत है । और प्राणियों की उत्पत्ति प्रथम कही जा चुकी है, फिर ‘स्त्रष्टुमिच्छन् इमाः प्रजाः’ कहने की क्या संगति है ? और काम, क्रोध, रति , तप आदि की रचना कहना भी निरर्थक ही है । अतः कतिपय दोषात्मक भावों के कथन की शैली मनु की प्रतीत नहीं होती । और मनु ने १।२९ वें श्लोक में हिंस्त्र - अहिंस्त्र, मृदु क्रूर, धर्म - अधर्म, तथा सत्य - असत्य प्राणियों के स्वभावों का वर्णन कर दिया है, अतः यहां पुनरक्त होने से भी यह मनु की रचना प्रतीत नहीं होती ।
 
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