Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
फिर काल और काल के भाग अर्थात् वर्ष, महीने, नक्षत्र और सूर्य आदि नवग्रह और नदी और समुद्र, सम-विषम स्थल उत्पन्न किये।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
(१।२४-२५) ये दोनों श्लोक प्रक्षिप्त हैं । क्यों कि इनकी संगति इस प्रकरण से तथा मनु की शैली से विपरीत है । यहाँ प्रकरण वेदों के द्वारा कर्मों का ज्ञान कराने का (१।२१-२२ में) चल रहा था, २३ वें श्लोक में प्रसंगवश वेदोत्पत्ति को बताया गया और १।२६ श्लोक में फिर कर्मों का ही विवेचन किया गया है । अतः कर्मविवेक प्रकरण के बीच में नदी, सागर, नक्षत्र , ग्रहादि की सृष्टि की बात असंगत है । और प्राणियों की उत्पत्ति प्रथम कही जा चुकी है, फिर ‘स्त्रष्टुमिच्छन् इमाः प्रजाः’ कहने की क्या संगति है ? और काम, क्रोध, रति , तप आदि की रचना कहना भी निरर्थक ही है ।
अतः कतिपय दोषात्मक भावों के कथन की शैली मनु की प्रतीत नहीं होती । और मनु ने १।२९ वें श्लोक में हिंस्त्र - अहिंस्त्र, मृदु क्रूर, धर्म - अधर्म, तथा सत्य - असत्य प्राणियों के स्वभावों का वर्णन कर दिया है, अतः यहां पुनरक्त होने से भी यह मनु की रचना प्रतीत नहीं होती ।