Manu Smriti
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सावित्रीमात्रसारोऽपि वरं विप्रः सुयन्त्रितः ।नायन्त्रितस्त्रिवेदोऽपि सर्वाशी सर्वविक्रयी ।2/118
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
जो पुरुष केवल सावित्री (गायत्री) को पढ़ा हो और शास्त्रानुसार नियम से रहता हो वह मान्य और आदरणीय है। और तीनों वेदों को पढ़ा हो परन्तु सब वस्तुओं को बेचने वाला, अपवित्र पदार्थ भक्षी और शास्त्र प्रतिकूल कर्म करने वाला हो वह मान्य तथा आदरणीय नहीं है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
यह २।९३ (२।११८) वाँ श्लोक निम्न कारण से प्रक्षिप्त है - (क) यह श्लोक प्रसंग विरूद्ध है । २।९२ श्लोक में अभिवादन विधि का वर्णन है, और २।९४ श्लोक में भी अभिवादन का वर्णन है । अतः इनके मध्य में इस श्लोक की कोई संगति नहीं है । (ख) इस श्लोक में मनु की मान्यताओं का स्पष्ट रूप से विरोध है । इस श्लोक में कहा है - ‘सब कुछ बेचने वाला, सब कुछ खाने वाला और तीन वेदों का ज्ञाता ब्राह्मण यदि अजितेन्द्रिय है, तो वह श्रेष्ठ नहीं है । और जो केवल गायत्री के सार जानने वाला है, और कुछ नहीं जानता, ऐसा जितेन्द्रिय ब्राह्मण (श्रेष्ठ) अच्छा है ।’ प्रथम तो ब्राह्मण के कर्मों में मनु ने व्यापार तो वैश्य का कर्म है । इसी प्रकार मनु ने द्विजों को सब कुछ खाने का कहीं आदेश नहीं दिया है । ब्रह्मचर्यादि विभिन्न आश्रमों में भोजन - विशेषों का उल्लेख तो किया ही है, साथ ही द्विजों को तामसिक भोजनादि (मांस, मदिरादि) का पंच्चम अध्याय में स्पष्ट निषेध किया है । अतः सब कुछ खाने वाला ब्राह्मण हो ही नहीं सकता । अतः यह श्लोक मनु की व्यवस्था के विरूद्ध होने से मान्य नहीं हो सकता । (ग) और ब्राह्मण का मुख्य कार्य वेदाध्ययन करके दूसरों को उपदेश करना है । किन्तु यहां ‘गायत्रीमात्रसार’ कहकर ब्राह्मण को वेदादि न पढ़ने की छूट का स्पष्ट संकेत किया गया है । और इसे आपद्धर्म भी नहीं कह सकते । मनु ने आपद्धर्मों का पृथक् विधान किया है । अतः प्रकरण - विरूद्ध, असंगत, तथा मनु की मान्यता से प्रतिकूल होने से यह श्लोक प्रक्षिप्त है ।
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
(१०) गुरु जिस शय्या या आसन पर बैठे हों, उस पर शिष्य न बैठै। और गुरु के आने पर शिष्य यदि अपनी शय्या या आसन पर बैठा हो तो उठकर उन्हें अभवादन करे।
 
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