Manu Smriti
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धर्मार्थौ यत्र न स्यातां शुश्रूषा वापि तद्विधा ।तत्र विद्या न वप्तव्या शुभं बीजं इवोषरे ।2/112

 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
जहाँ धर्म, अर्थ और सेवा शास्त्रानुसार नहीं है वहाँ विद्या न सिखाना। क्योंकि उत्तम और उपजाऊ बीज ऊसर भूमि में नहीं बोया जाता।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
. यत्र धर्माथौ न स्याताम् जहां धर्मभावना और अर्थ प्राप्ति न हो वा और तद्विधा शुश्रूषा अपि गुरू के अनूरूप सेवाभावना भी न हो तत्र विद्या न वक्तव्या ऐसे को विद्या का उपदेश नहीं करना चाहिए, क्यों कि ऊषरे शुभं बीजम् इव वह ऊसर भूमि में श्रेष्ठ बीज बोने के समान है और जैसे बंजर भूमि में बोया हुआ बीज व्यर्थ होता है उसी प्रकार उक्त व्यक्ति को दी गई विद्या भी व्यर्थ जाती है ।
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
(८) जिस शिष्य में धर्म और पुरुषार्थ ने हों, तथा जिसमें तदनुकूल गुरुसेवा भी न हो, उस शिष्य को वेद न पढ़ाना चाहिए। क्योंकि ऐसे अयोग्य शिष्य को वेद पढ़ाना ऊसर खेत में बढ़िया बीज बोने के समान है। अतः, शिष्य को निष्कपट, पुरुषार्थी तथा गुरुभक्त होना चाहिए।
 
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