Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
यह चारों वर्णों के आपदकाल का धर्म कहा गया, जिसके करने से कोई लाभ नहीं परन्तु विपत्ति को निवारण करने के हेतु उचित समझा गया है पर जो इसको त्याग देवे अर्थात् कष्ट को सहन करले वह परमगति अर्थात् मोक्ष के मार्ग पर चलता है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है—
1. शैलीविरोध- मनु की यह शैली है कि वे किसी विषय का निर्देश अवश्य करते है । इस श्लोक में इस शैली का अभाव है । और (10/131) में पूर्वविषय का उपसंहार तथा अगले विषय का निर्देश भी होने से यही श्लोक मौलिक है, 10/130 वाँ श्लोक नहीं ।
2. अन्तर्विरोध- और किसी परवर्ती प्रक्षेपक ने आपत्कालीन धर्मों के नाम से परवर्ती जन्म-मूलक वर्णव्यवस्था के आधार पर इन श्लोकों का मिश्रण किया है । क्योंकि ’आपत्काल’ का अभिप्राय यह कदापि नहीं होता कि दूसरे वर्णों के कर्मों को ही करने लग जाये ? जिसके जैसे गुण, कर्म, स्वभाव होते है क्या वे आपत्काल में बदल सकते है ? अतः इन श्लोकों से जन्म-मूलक वर्णव्यवस्था की ही पुष्टि होती है, और वह मनु की मान्यता से विरुद्ध है । ’आपद्धर्म’ का क्या अभिप्राय है ? वह कितने समय के लिये होता है ? यह इन श्लोकों में कहीं नही लिखा है जिससे स्पष्ट है कि ये आपद्धर्म नाम के श्लोक मौलिक नहीं है ।
3. विषय-विरोध- 10/131 वें श्लोक में स्पष्ट कहा है कि ’चातुर्वर्ण्य-धर्म’ विषय का ही इस अध्याय में कथन किया गया है । आपद्धर्मों का नहीं । अतः आपद्धर्म का वर्णन विषयविरुद्ध है ।
4. अयुक्ति-युक्त- यथार्थ में अध्यायों का विभाग भी परवर्ती तथा दोषपूर्ण है । क्योंकि ऐसा प्रतीत होता है कि 9 से 10 अध्यायों का विभाग करने वाला श्लोक किसी प्रक्षेपक ने या तो हटा दिया अथवा आपद्धर्म के श्लोक मिलाने के लिये दो अध्यायों में बांट दिया है । क्योंकि चातुर्वर्ण्य- धर्म का विषय लम्बा होने से अनेक अध्यायों में है । या तो अध्यायों का विभाग वर्णों के अनुसार बन जाना चाहिए, अथवा राजधर्म के पृथक् अध्याय (7, 8, 9) बनाकर शेष श्लोकों को दशमाध्याय में रखा जाना चाहिये ।
और दशमाध्याय में कुछ श्लोकों को छोड़कर आपद्धर्म है भी नहीं । इसमें तो अधिकतर वर्णसंकरों की उत्पत्ति तथा उनके कार्यों का वर्णन है । जिन्हें कोई भी आपद्धर्म नहीं मान सकता । अतः 10/130 तथा 9/336 दोनों ही श्लोक परवर्ती प्रक्षिप्त है ।
टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार