Manu Smriti
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धान्येऽष्टमं विशां शुल्कं विंशं कार्षापणावरम् ।कर्मोपकरणाः शूद्राः कारवः शिल्पिनस्तथा ।।10/120
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
आपत्तिकाल की दशा में व धान में वैश्यों से बीस रूपिया बढने में आठवाँ भाग लेवें और महान आपत्ति समय में तो चैथा भाग कह आये हैं। आपत्ति काल न हो तो बारहवाँ भाग लेवें। सोना व पशु इनका पचासवाँ भाग लेवें और आपत्ति समय हो तो बीसवाँ भाग लेवें। शूद्र व रसोई बनाने वाला, बढ़ई आदि से आपत्तिकाल में कर न लेवें उसके पलटे में कार्य करा लेवें।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये सभी श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त हैं— 1, प्रसंगविरोध- (क) मनु ने 9/325 तक में क्षत्रिय कर्मों का विधान किया है, उसके बाद वैश्य व शूद्र के कर्मों का प्रसंग है । किन्तु यहाँ क्षत्रिय के कर्मों का पुनर्वर्णन अप्रासंगिक है । इसी प्रकार शूद्र की वृत्ति तथा कर्म का वर्णन भी प्रथम कर चुके है फिर नये ढंग से उसका वर्णन करना असंगत है । (ख) और यदि वर्णन करने की कोई आवश्यकता थी तो सभी वर्णों का क्रमशः करते ? किन्तु यहां क्षत्रिय के बाद शूद्र का वर्णन करना पुनरुक्त, असंगत तथा क्रमविरुद्ध होने से प्रक्षिप्त है । 2. अन्तर्विरोध- (क) 121-123 श्लोकों में यह वर्णन है कि शूद्र का ब्राह्मणों की सेवा करना ही परमधर्म है, किन्तु विशेष परिस्थिति में क्षत्रिय और वैश्य के यहां भी आजीविका कर सकता है । यह व्यवस्था मनु की मान्यता से विरुद्ध और पक्षपातपूर्ण होने से मान्य नहीं हो सकती । क्योंकि मनु ने (1/96, 9/334-335 में) द्विजन्मा= ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्य तीनों वर्णों की सेवा करना ही शूद्र का धर्म माना है । (ख) और 10/127 में शूद्र के लिए मन्त्रवर्ज्य यज्ञों का विधान मनु के विरुद्ध है । इस विषय में 2/172 पर टिप्पणी द्रष्टव्य है । (ग) और (10/125 में) शूद्र के लिये जूठा अन्न तथा फटे पुराने वस्त्रों को देने का विधान भी शूद्रों के प्रति घृणा भावना प्रकट करता है । परन्तु मनु ने शूद्र को (9/335 में) पवित्र तथा उत्कृष्ट वर्ण को प्राप्त करने का पूर्ण अधिकार दिया है । अतः मनु के संविधान में सम्मान का आधार गुण, कर्म व स्वभाव है, और किसी भी व्यक्ति के प्रति घृणा भावना के लिये मनु के शास्त्र में कोई स्थान नहीं है । 3. शैलीगत आधार- इन श्लोकों में शूद्र के विषय में जो वर्णन किया गया है, उसकी शैली पक्षपातपूर्ण, घृणास्पद, दुराग्रहवृत्ति को प्रकट करने के कारण अयुक्तियुक्त है । 4. पुनरुक्त एवं परस्पर विरुद्ध- मनु ने राजा के लिये 7/130-132 श्लोकों में कर का विधान किया है कि कर किससे किस प्रकार लेवे । पुनः यहां 10/118-120 श्लोकों में कर का विधान करना पुनरुक्त होने से निरर्थक है और इन्हें आपत्कालीन विधान भी नहीं माना जा सकता, क्योंकि वहां कहे विभिन्न कर-विधानों से यहां कुछ भी विशेष नही कहा गया है । और मनु ने वर्णानुसार न करके केवल व्यापारादि कुछ आय के साधनों पर किया है किन्तु यहाँ (10/120 में) शूद्रो से करके रूप में काम करने का विधान उससे विपरीत है । और क्षत्रिय का धर्म है कि वह सब प्रजा की रक्षा करे । उसमें ब्राह्मणादि सभी वर्ण आ जाते हैं । परन्तु (10/119 में) कहा है कि वैश्यों की रक्षा करके बलि= ग्रहण करे । क्या आपत्काल में ही दूसरे वर्णों की रक्षा करनी चाहिए ? और 10/118 में कहा है कि क्षत्रिय प्रजा की रक्षा करता हुआ पाप से छूट जाता है यह भी मनु की मान्यता से विरुद्ध है । प्रजा की रक्षा करना क्षत्रिय का धर्म है यदि क्षत्रिय भी दुष्कर्म करता है, तो उसका फल उस अवश्य मिलता है । टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
वैश्यों से धान्य के लाभ का आठवाँ भाग और सोने चाँदी के लाभ का बीसवाँ भाग कर लें। शूद्र कारीगर और शिल्पियों से काम करावें। (नोट-यह तीनों श्लोक विपत्ति के समय के लिये हैं।)
 
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