Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
विभाग में नौकरी करने से गुप्त धन मिला जो मोल लिया गया जो जाति से मिला, जो व्यवहार करने से मिला जो कर्म करने पर मिला, जो उत्तम पुरुषों से दान लेने से मिला, इन सात प्रकार के धन का लेना धर्मानुसार है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये सभी श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है—
1. विषय-विरोध- नवमाध्याय के उपसंहार में मनु ने लिखा है— एषोsखिलः कर्मविधिरखिलो राज्ञः सनातनः । इमं कर्मविधि विद्यात् क्रमशो वैश्यशूद्रयोः ।। (9/325)
अर्थात् चातुर्वर्ण्यधर्म के अन्तर्गत यह समस्त क्षत्रिय के धर्मों का वर्णन किया है और अब क्रम से वैश्य व शूद्र के कर्मों का विधान करेगे । और दशम-अध्याय के अन्तिम श्लोक में भी यही कहा है— एष धर्मविधिः कृत्स्नश्चातुर्वर्ण्यस्य कीर्तितः ।। अर्थात् चारों वर्णों के धर्मों का विधान सम्पूर्णता से कहा गया । इन दोनों श्लोकों से इस अध्याय के विषय का निर्देश स्पष्ट है । किन्तु यहाँ 74 से 83 श्लोकों में ब्राह्मण की आजीविका के कर्मों का विधान, 95 में क्षत्रिय की आजीविका के 98 में वैश्य की और 99 में शूद्र की आजीविका के कर्मों का विधान विषय-निर्देशक श्लोकों से विरुद्ध है । और उस क्रम में वैश्य के 9/326 से 9/333 श्लोकों में और शूद्र के 9/334-335 श्लोकों में कर्मो का विधान कर चुके है । और मनु ने (10/4 में) चातुर्वर्ण्य धर्मों की समाप्ति पर यह भी स्पष्ट कर दिया है कि वर्ण चार ही है, इनसे भिन्न पांचवां वर्ण कोई नही है । अतः प्रतिपाद्य विषय के समाप्त होने पर पुनः उसका प्रकारान्तर से इसलिये कथन करना कि जन्म-मूलक उपजातियों से इनका सम्बन्ध जोड़ा जा सके, यह सर्वथा अनुचित है । और यह मनुप्रोक्त नहीं हो सकता । क्योंकि मनु एक विषय का प्रतिपादन एकत्र ही कर देते हैं ।
2. शैलीविरोध- इन श्लोकों की शैली मनुसम्मत नही है जैसे- (क) 78 वें श्लोक में कहा है- ’मनुराह प्रजापतिः । ’ इससे स्पष्ट है कि ये श्लोक मनु से भिन्न किसी व्यक्ति ने मनु के नाम से बनाये है ।
(ख) 91-93 श्लोकों की शैली अतिशयोक्तिपूर्ण, घृणायुक्त, भयप्रदर्शनात्मक और रूढ़ होने से मनुप्रोक्त नही है । जैसे- 91 में पितरों के साथ कीड़ा बनकर कुत्ते की विष्ठा में पड़े रहना, 92 में नमक व मांस बेचने से तुरन्त पतित होना, और दूध बेचने से ब्राह्मण का तीन दिन में शूद्र हो जाना, और निषिद्ध वस्तुओं के विक्रय से ब्राह्मण (93 में) सात रातों में वैश्य बन जाता है ।
(ग) और 106 वें श्लोक में कहा है कि कोई निम्न वर्ण का व्यक्ति उच्चवर्ण की आजीविका न करे, यह भी मनु की मान्यता के विरुद्ध भय-प्रदर्शन मात्र ही किया है । यदि किसी वर्ण का व्यक्ति निम्नवर्ण के कार्य कर सकता है तो उच्चवर्ण के कर्मों पर प्रतिबन्ध क्यों ? मनु ने 10/65 श्लोक में ’शूद्रो ब्राह्मणतामेति’ इत्यादि कहकर शूद्र को ब्राह्मण और ब्राह्मण को कर्महीन होने पर शूद्र स्पष्टरूप से माना है । अतः उच्चवर्ण के कर्मों पर प्रतिबन्ध की बात मनुप्रोक्त नही है । यह सब जन्माश्रित वर्णव्यवस्था की मान्यता का ही प्रभाव है ।
(घ) और 105-108 श्लोकों की शैली विध्यात्मक न होकर ऐतिहासिक और अयुक्तियुक्त है । यह शैली मन की नही है । जैसे- अजीगतं भूख से पीडित होकर पुत्रहत्या करने के लिये तैयार होकर भी पाप-ग्रस्त न हुआ (105) । वामदेव ने भूख से पीडित होकर कुत्ते के मांस को खाने की इच्छा की और पाप-ग्रस्त न हुआ (106) । भरद्वाज बढई से दान में गायें लेकर भी पाप-ग्रस्त न हुआ (107) । और विश्वामित्र भूखा होने पर चण्डाल के हाथ से कुत्ते का मांस खाने को उद्यत हुए और पापग्रस्त न हुये (109) । ये सभी उदाहरण ऐतिहासिक शैली के होने से मनुप्रोक्त नहीं है । और ये अजीगर्तादि सभी व्यक्ति मनु से परवर्ती है , फिर मनु उनके उदाहरण कैसे दे सकते थे ? मनु तो सृष्टि के आदि में हुए हैं ।
(ङ) और 10/104 में कहा है कि जैसे कीचड़ से आकाश लिप्त नहीं होता वैसे ब्राह्मण पाप से लिप्त नही होता । यह अयुक्तियुक्त व पक्षपातपूर्ण होने से मनुप्रोक्त नहीं हो सकता ।
3. अन्तर्विरोध- (1) 82 वें श्लोक में कहा है कि ब्राह्मण क्षत्रिय की वृत्ति से जीविका न चला सके तो वैश्यवृत्ति के गोरक्षा और कृषि कर्म करके जीविका चलाये । किन्तु 83-84 श्लोकों में कृषि की निन्दा करके ब्राह्मण को कृषि कर्म करने का विषेध कर दिया है, और व्यापार करने का विधान कर दिया है ।
(2) और 88-89 श्लोकों में मद्य-मांसादि के विक्रय का निषेध किया है । मनु की मान्यता में मद्यमांसादि राक्षसों का भोजन है और मांस के विक्रेता को भी मनु ने घातक = पापी 5/51 में कहा है । इससे स्पष्ट है कि मांसादि का क्रय करना वैश्य के कर्मों में मनु नहीं मानते । फिर यह निषेधात्मक समस्त विधान परवर्ती समय का है कि जब मद्य-मांसादि का सेवन बढ़ने से विक्रय होने लगा था ।
(3) और 101-107 श्लोकों में ब्राह्मणों के लिये निन्दित दानादि लेने का विधान किया गया है । जबकि अन्यत्र 4/191-194 सर्वत्र विशुद्ध दान लेने का कथन है । और 104-108 श्लोकों में मांस-भक्षण को उचित बताया है, जब कि मनु ने आपत्काल में भी हिंसा करने का 5/51, 43 में निषेध किया है ।
(4) और 106 श्लोक में ब्राह्मण तथा क्षत्रिय के लिये ब्याज पर धन देने की छूट दी है, जबकि 10/82 में ब्याज कार्य को ठीक नही माना है । और 120 से 128 तक के श्लोकों में ऐसी बातें लिखी है कि जो 101-108 तक श्लोकों में कही बातों का विरोध कर रही है ।
(5) 10/74-82 तक, 10/95, 10/98 और 10/99 श्लोकों में विशेष रूप से वैकल्पिक ऐसी व्यवस्थायें दी गई है कि यदि चारों वर्णों के व्यक्ति अपने-अपने वर्णकार्यों से आजीविका न चला सके तो अपने- अपने से निम्न वर्णों की वृत्ति-कर्मों से आजीविका कर सकते है । इन व्यवस्थाओं को देखकर ही प्रायः व्याख्याकारों ने इनमें आपत्कालीन वर्णों के कर्म मानकर व्याख्यायें की है । किन्तु इन व्यवस्थाओं पर विचार करने से स्पष्ट होता है कि ये प्रक्षेप किसी जन्ममूलक वर्णव्यवस्था के मानने वाले ने किये है । इस विषय में कतिपय आपत्तियाँ इस प्रकार हैं—
(क) इन श्लोकों में कहा गया है कि यदि ब्राह्मणादिवर्ण अपने यथोक्त कर्मों से आजीविका न चला सके तो ब्राह्मण क्षत्रियधर्म=शस्त्रास्त्र धारण करके प्रजा की रक्षा करके अथवा वैश्य के धर्मों =कृषि और व्यापार करके आजीविका चलावे । इसी प्रकार दूसरे वर्ण भी करे । इन बातों को पढ़कर ही इस अध्याय को आपद्धर्म्म का माना जाने लगा । किन्तु यह मान्यता मनु की कदापि नहीं है । क्योंकि मनु ने गुण, कर्म, स्वभाव से सच्चा ब्राह्मण है, वह आजीविका न चला सके, यह बात मिथ्या है । हाँ जो ब्राह्मण के घऱ में जन्म लेकर यथार्थ में ब्राह्मण के कर्म नहीं करता वह अवश्य ऐसी दशा को प्राप्त हो सकता है । जैसे कोई योग्य चिकित्सक है, उसके भूखे मरने का प्रश्न ही नहीं उठता । और यदि उसका पुत्र चिकित्सा करना नहीं जानता तो उसके लिये आजीविका का प्रश्न उठ सकता है । इसी प्रकार इन श्लोकों का मिश्रण किसी जन्म-मूलक वर्णव्यवस्था के पक्षपाती ने किया है, जो यह मानते है कि ब्राह्मण के घर जन्म लेने वाला ही ब्राह्मण होता है, चाहे वह विद्यादि गुणों वाला हो या नही ।
(ख) यदि कोई ऐसी बात कहे कि ये तो आपद्धर्म कहे है, यह बात भी सत्य नही है । क्योंकि आपद्धर्म की यहाँ कोई परिभाषा नहीं है ? और आपद्धर्म कितने समय तक होता है । यह निर्धारण भी कोई नही कर सकता । और दूर्जनतोषन्याय से मान भी लिया जाये कि आपत्ति तो हरेक मनुष्य पर आ सकती हैं तो यहाँ विचार करना चाहिए कि आपत्ति का क्या स्वरूप है ? क्या ऐसी स्थिति को आपत्ति माना जाये, जिसमें ब्राह्मण ब्राह्मण के कार्य न कर सके ? ऐसी स्थिति दो प्रकार से आ सकती है—(1) एक अत्यधिकरुग्णदशादि के कारण अथवा (2) ब्राह्मण के कर्मों की योग्यता न रखने के कारण । यदि रोगादि के कारण ऐसी दशा हुई है, तब तो क्षत्रिय या वैश्य के कर्म भी कैसे कर सकेगा ? और यदि वह अयोग्य है, तो मनु की कर्ममूलक-वर्ण-व्यवस्था के अनुसार वह ब्राह्मण ही नही है । और जो ऐसी दशा में हैं कि भूखा मर रहा है, क्या वह क्षत्रिय या वैश्य के कर्मों को बिना साधनों के कर सकता है ?
(ग) मनुके वर्णव्यवस्था का आधार कर्म को माना है । जो व्यक्ति पढ़-लिखकर भी कर्मों से हीन है, वह भी ब्राह्मणादि द्विजो में परिगणित नहीं किया जा सकता । और मनु की मान्यता के अनुसार द्विजों को वर्णव्यवस्था का निर्धारण विद्या-समाप्ति पर आचार्य करता है । और आचार्य विद्यार्जन के समय विद्यार्थी के गुणों, कर्मों तथा स्वभावों को जानकर ही वर्णों का निर्धारण करता है । जिसका गुण, कर्म, व स्वभाव ब्राह्मण का है, क्या वह आपत्ति के समय अपने गुण, कर्म, स्वभाव को बदलकर दूसरे वर्णों के कार्य कर सकता है ? ब्राह्मणावृत्ति का मनुष्य क्षत्रियवृत्ति के कार्य अथवा वैश्यवृत्ति के कार्य कैसे कर सकता है ? अतः ब्राह्मणवर्ण का व्यक्ति दूसरे वर्णों के कार्यो से आजीविका कर लेवे, यह वैकल्पिक व्यवस्था किसी जन्म-मूलक वर्ण-व्यवस्था को मानने वाले मनुष्य की बुद्धि की उपज है, मनु की नही । इसी प्रकार 10/95 में क्षत्रिय के लिये वैश्यवृत्ति के कार्यों की व्यवस्था, 10/98 में वैश्यवर्ण के लिये शूद्र वृत्ति से कार्यों की व्यवस्था और 10/99 में शूद्र के लिये शिल्पकार्यों की वैकल्पिक व्यवस्थायें परवर्ती होने से प्रक्षिप्त हैं । और ब्राह्मण की भांति क्षत्रियादि का आपत्काल क्या हो सकता है ? क्या प्रजापालन करने में असमर्थ क्षत्रिय वैश्य के, और कृषि, व्यापारादि करने मे असमर्थ वैश्य शूद्र के कार्य कर सकता है ? और यदि आजीविका का ही केवल आपत्काल होता है, तो सब वर्णों को वैश्य के कर्म करने का ही अधिकार देना चाहिये, क्योंकि आजीविका के लिये धर्नाजन का यही सर्वोत्तम उपाय है ।
(घ) और मनु के अनुसार जो ब्राह्मणादि तीनों वर्णों में दीक्षित न हो सके, वह शूद्र होता है, जन्म से नहीं । ऐसा व्यक्ति शारीरिक श्रम करके (द्विजों की सेवा करके) आजीविका कर सकता है । उसके लिए (आपत्कालीन) यह वैकल्पिक व्यवस्था बताना बिल्कुल ही असंगत है कि वह कारुकर्म= शिल्प-कर्म करके जीविका चला लेवे । शूद्र के आपत्काल से क्या अभिप्राय है ? यदि यह कहो कि वह रोगादि से पीडित दशा में आपद्ग्रस्त होता है, तब तो वह शिल्पकर्म भी कैसे करेगा ? अतः स्पष्ट है कि जन्म-मूलक वर्णाव्यवस्था के प्रचलित होने पर ऐसी दशा उत्पन्न हुई कि जो व्यक्ति शूद्र कुल में उत्पन्न हुआ है, किन्तु द्विजों के सेवाकार्य करने में असमर्थ है , क्योकि उसके गुण, कर्म, स्वभाव शूद्र जैसे नही है तब किसी ने यह वैकल्पिक व्यवस्था लिखी है कि वह शिल्पकर्म से आजीविका कर लेवे । किन्तु यह मान्यता मनुसम्मत न होने से मौलिक नहीं है ।
(ङ) मनु जी ने आर्यों को चार वर्णों में विभक्त करके स्पष्ट लिखा है—
’चतुर्थ एकजातिस्तु शूद्रो नास्ति तु पञ्चम् । (मनु. 10/4)
अर्थात् मनुष्य-समाज के ब्राह्मणादि चार ही वर्ण है, पांचवां कोई नही । किन्तु यहां प्रक्षेपक ने मनु की इस मान्यता के विरुद्ध जन्ममूलक जो बढ़ई सुनारादि उपजातियां बन गई थीं, उनके आधार पर लिखा है कि शूद्र कारु-कर्म= शिल्पकर्म करके आजीविका करे । ये उपजातियां मनु की मान्यता के विरुद्ध तथा बहुत ही परवर्ती होने से प्रक्षिप्त है ।
(च) मनु ने इस शास्त्र में शिल्पकर्म को वैश्यवर्ण के कार्यों में अन्तर्निहित किया है कारुक=शिल्पीनामक कोई पृथक् विभाग नही किया है । परन्तु इस शिल्पकर्म को चारों वर्णों से भिन्न उपजातियों का कर्म बताकर, प्रक्षेपक ने स्वयं अपना भेद (परवर्ती होने से) प्रक्षिप्त सिद्ध कर दिया है क्योंकि प्रक्षेपक के समय सुनार, कुम्हार, धोबी आदि उपजातियां बन चुकी थीं ।
4. पुनरुक्त एवं क्रमविरोध- इन श्लोकों में पुनरुक्त और क्रमविरुद्ध बातें पर्याप्त रूप में कही है, जिससे ये श्लोक मनुप्रोक्त कदापि नहीं हो सकते । जैसे-
(क) 74-82 श्लोकं में ब्राह्मण की आजीविका के लिए अनेक वैकल्पिक विधान किये है (जिनमें परस्पर विरोधी बात भी है) और 10/101 में कहा है कि ब्राह्मण जीविका के अभाव में ’इमं धर्मं समाचरेत्’ अर्थात् अगले श्लोकों में कहे अनुसार जीविका करें । यदि मनुप्रोक्त ये श्लोक होते तो क्रमशः एकत्र होते । शूद्र की आजीविका के बाद पुनः ब्राह्मणवृत्ति की बात उठाना असंगत है ।
टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
धन मिलने के सात साधन धर्म-युक्त हैं:- पैतृक दायभाग, लाभ, बेचकर मिला धन, विजय द्वारा प्राप्त लेन देन से प्राप्त, श्रम करके प्राप्त और किसी सत्पुरुष का दिया दान।