Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
नित्यकर्म में जो मन्त्र पढ़े जाते हैं वह अनध्याय के दिन भी पुण्य से रिक्त नहीं हैं अर्थात् पुण्य देने वाले हैं।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
नैत्यके अनध्यायः न अस्ति नित्यकर्म में अनध्याय नहीं होता जैसे श्वास - प्रश्वास सदा लिये जाते हैं, बन्ध नहीं किये जाते, वैसे नित्यकर्म प्रतिदिन करना चाहिये, न किसी दिन छोड़ना हि क्यों कि अनध्यायवषट्कृतं ब्रह्माहुतिहुतं पुण्यम् अनध्याय में भी अग्निहोत्रादि उत्तम कर्म किया हुआ पुण्यरूप होता है ।
टिप्पणी :
तत् ब्रह्मसत्रं स्मृतम् उसे ब्रह्मयज्ञ माना गया है.................................... ।
जैसे झूठ बोलने में सदा पाप और सत्य बोलने में सदा पुण्य होता है, वैसे ही बुरे कर्म करने में सदा अनध्याय और अच्छे कर्म करने में सदा स्वाध्याय ही होता है ।
(स० तृतीय समु०)
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
क्योंकि नित्यकर्म में कभी अनध्याय नहीं होता, यतः यह ब्रह्मादेश से सतत होने वाला कर्म ‘ब्रह्मसत्र’ कहलाता है। अर्थात् जैसे श्वास प्रश्वास आदि सदा के लिए जाते हैं बन्द नहीं किये जा सकते, वैसे ही नित्यकर्म भी प्रतिदिन करने चाहिऐं किसी दिन छोड़ने नहीं चाहिऐं। एवं, अनध्याय में भी स्वाहाकार पूर्वक किया हुआ तथा वेदमन्त्रों के उच्चारण पूर्वक आहुतियों से आहुत अग्निहोत्रादि उत्तम कर्म पुण्यरूप होता है।