Manu Smriti
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सुबीजं चैव सुक्षेत्रे जातं संपद्यते यथा ।तथार्याज्जात आर्यायां सर्वं संस्कारं अर्हति ।।10/69
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
जिस प्रकार उत्तम बीज उत्तम खेत पड़ने से उत्तम अन्य उपजता है उसी प्रकार से श्रेष्ठ मनुष्य से श्रेष्ठ स्त्री में उत्पन्न हुआ पुत्र सब संस्कारों के योग्य होता है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त हैं- 1. विषय-विरोध- इस अध्याय के अन्तिम श्लोक से स्पष्ट है कि इस अध्याय का विषय चातुर्वर्ण्य-धर्मों का वर्णन करना है । किन्तु इनमें वर्णसंकरों का, (जो कि चारों वर्णों के अन्तर्गत न होने से बाह्य है) वर्णन किया गया है और बीज की उत्कृष्टता बताई गई है । अतः यह विषय-विरुद्ध वर्णन है । 2. अन्तर्विरोध- (क) महर्षि- मनु ने शूद्र को भी आर्य वर्ण माना है । मनु की मान्यता में मनुष्यों के दो ही भेद है- आर्य और दस्यु । और चारों वर्णों से भिन्न जो मनुष्य है, वे 10/45 के अनुसार दस्यु है । अतः शूद्र भी आर्य वर्ण है । परन्तु 10/66 और 10/73 में शूद्र को ’अनार्य’ शब्द से कथन किया गया है । (ख) मनु ने द्विजों के सवर्ण-विवाह को माना है , परन्तु यहाँ 10/67 में ब्राह्मण से शूद्रो में उत्पन्न सन्तान का कथन से स्पष्ट है कि यहाँ असवर्ण-विवाह को भी माना गया है, जो कि मनु की मान्यता से विरुद्ध है । (ग) मनु की मान्यता में वर्णव्यवस्था कर्ममूलक है, जन्म-मूलक नहीं । परन्तु 10/68 तथा 10/73 में जन्ममूलक वर्ण-व्यवस्था को ही माना गया है । और वर्णों को अपरिवर्त्तनीय माना गया है । यह 10/65 के कथन से विरुद्ध है । 3. शैली-विरोध- मनु की वर्णन-शैली विधानात्मक है । परन्तु ’तिर्यग्जा ऋषयोsभवन्’´10/72 यह ऐतिहासिक शैली है, अतः मनु की नहीं । और 10/73 में कहा है कि- (अब्रवीद् धाता) अर्थात् यह निश्चय ब्रह्मा ने किया है । यह भी मनु की शैली नही है । क्योंकि मनुस्मृति धर्मशास्त्र मनुप्रोक्त है ब्रह्मा द्वारा नहीं । सृष्टिक्रम-विरुद्ध- महर्षि मनु ने ऋषि शब्द को देव, पितर, आदि की भांति मनुष्यों का भेद माना है । इसलिये मनु ने (12/49 मे) ऋषि , देव, पितर तथा साधनों को द्वितीय सात्विकगति वाले माना है । और मनु के पास (1/1) महर्षि जिज्ञासा लिये आये थे, जिनके उत्तर में मनु ने वर्णाश्रम धर्म का उपदेश किया । और तिर्यक योनि पशुपक्षी आदि की है । जैसे-तिर्यक्त्वं तामसा नित्यम॰ (12/40) यहां पर मनु ने मनुष्यों से भिन्न पशुपक्षी आदि योनियों को ही तिर्यक कहा है । अतः स्पष्ट है कि ऋषि और तिर्यक योनि पृथक- पृथक है । किन्तु यहां कहा है— तिर्यग्जा ऋषयोsभवन् ।।(10/72) अर्थात् तिर्यक्=पशुपक्षी योनि में उत्पन्न होकर बीज के प्रभाव से ऋषि हो गये । क्या यह सम्भव है कि तिर्यक योनिवाला ऋषि बन जाये ? क्या इस प्रकार स्वयं योनि बदलने का मानव का सामर्थ्य है ? क्या दूसरी योनी हो सकती है, क्या पशुपक्षी बीज-प्रभाव से ऋषि बन सकते है ? अतः यह कथन सृष्टि-नियम के विरुद्ध होने से सर्वथा मिथ्या है । मनु सदृश प्राप्त-पुरुष ऐसा मिथ्या प्रवचन कभी नहीं कर सकते । टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
परन्तु जैसा अच्छा बीज अच्छे खेत में अच्छी उपज उत्पन्न करता है। इसी प्रकार आर्या स्त्री में आर्य की सन्तान सब संस्कारों के योग्य होती है।
 
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