Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
मनुष्य माता पिता के स्वभाव को ग्रहण करता है वा दोनों की सम्मिलित प्रकृति सीखता है परन्तु नीच कुल का मनुष्य अपनी नीचता से दुष्ट प्रकृति को नहीं छोड़ता।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये श्लोक निम्नकारणों से प्रक्षिप्त है-
1. प्रसंग-विरोध- 10 /45 में चारों वर्णों से भिन्न मनुष्यों को दस्यु कहकर 10/57-58 श्लोकों की पहचान बताना संगत है । किन्तु मुख्य विषय चातुर्वर्ण्य-धर्म का होने से मनु ने 10/65 में चारों वर्णों के विषय में कहा है कि इन चारों वर्णों का आधार कर्म ही है । उच्चवर्ण का व्यक्ति कर्मानुसार निम्नवर्ण का और निम्नवर्ण का व्यक्ति उच्चवर्ण का हो सकता है । इस चातुर्वर्ण्य-धर्म विषय के मध्य में 10/61 आदि श्लोकों में वर्णदूषकों का वर्णन प्रसंगविरुद्ध है ।
2. अन्तर्विरोध- मनु की मान्यता कर्मानुसार वर्णव्यवस्था है । किन्तु यहाँ (10/59-60 में) जन्ममूलक सिद्ध करने के लिये जन्म की उत्कृष्टता दिखाई गई है । और मनु ने सवर्णों में विवाह की उत्कृष्ट माना है । किन्तु 10/64 में वर्ण-संकर ब्राह्मण का विवाह-शूद्र के साथ मानकर उससे उत्पन्न सन्तान का वर्णन किया है । यह सवर्ण-विवाह की मान्यता से विरुद्ध है ।
3. शैली-विरोध- मनु ने समस्त धर्मशास्त्र में प्रत्येक प्रकरण का प्रारम्भ तथा उपसंहार में अवश्य निर्देश किया है, और मनु ने विषय के विरुद्ध कुछ नही कहा है । किन्तु यहाँ चातुर्वर्ण्य-विषय में वर्ण-संकरों का विषयविरुद्ध वर्णन किया गया है । और मनु ने अपना नाम लेकर कहीं प्रवचन नहीं किया । किन्तु यहाँ (10/63 में) प्रक्षेप करने वाले ने अपनी मिथ्या बातों को मनु से प्रमाणित कराने के लिये ’अब्रवीन्मनुः’ इत्यादि शब्दों का प्रयोग किया है । जिससे स्पष्ट है कि ये श्लोक मनु से भिन्न किसी दूसरे व्यक्ति ने बनाकर मिलाये है ।
4. परस्पर-विरोध- 10/61 श्लोक मे कहा है कि वर्णसंकर सन्तान राष्ट्रघातक होती है । किन्तु 10/12 में कहा है कि यदि वर्णसंकर से उत्पन्न सन्तान ब्राह्मण और गायों आदि की रक्षा के लिये शरीर-त्याग कर देवें, तो इन्हें सिद्ध=स्वर्गादि उत्तमगति प्राप्त हो जाती है । क्या जो राष्ट्र-घातक है, के राष्ट्र के लिये अपना बलिदान कर सकते है ? और मनु ने उत्तम कर्मों से उमत्तगति मानी है किन्तु यहाँ निन्दितकर्म करने वालों को देह-त्याग करने से ही सिद्धि लिखी है । यह परस्पर विरोधी होने से मनु की मान्यता नही है । और मनु ने लिखा है-
महायज्ञैश्च यज्ञैश्च ब्राह्मीयं क्रियते तनुः (मनु. 2/28)
अर्थात् ब्राह्मण का शरीर जन्म से नही बनता, किन्तु यज्ञादि श्रेष्ठ कार्यों के करने से बनता है । किन्तु यहाँ (10/64 में) कहा है कि सात पीढ़ी के बाद ब्राह्मण से शूद्रों में उत्पन्न सन्तान उत्तमवर्ण वाली बन जाती है । यह जन्म मूलक वर्ण-व्यवस्था मनुसम्मत नही हो सकती । और यह अयुक्तियुक्त भी है कि जन्म के आधार पर सात पीढियों में सन्तान उत्कृष्टवर्ण में बिन कर्म के कैसे दीक्षित हो सकती है ।
टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
ऐसा पुरुष अपने बुरे शील को या तो पिता से पाता है या माता से या दोनों से। यह दुर्योनि अपनी प्रकृति को छिपा नहीं सकता।
तात्पर्य यह है कि व्यभिचार वह स्त्री पुरुष करते हैं, जिनमें कुछ दुर्गुण होते हैं। और यह दुर्गुण उनकी संतान में भी उतर आते हैं।