Manu Smriti
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चैत्यद्रुमश्मशानेषु शैलेषूपवनेषु च ।वसेयुरेते विज्ञाता वर्तयन्तः स्वकर्मभिः ।।10/50
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
यह सब लोग प्रसिद्ध वृक्षों (पेड़ों) की जड़ में जो पत्थर पहाड़ वन में अपने कर्मों के अनुसार जीविका निर्वाह करते रहें।
टिप्पणी :
वर्ण संस्कारों के कार्यों का वर्णन है कोई वर्णाश्रमी यह न समझे कि यह हमारा धर्म है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त हैं— 1. विषयविरोध- 10/131 श्लोक के अनुसार इस अध्याय का विषय ’चातुर्वर्ण्यधर्म’ है । किन्तु इनमें वर्णसंकरो से उत्पन्न सूतादि के कार्यों का वर्णऩ किया गया है । अतः यह चातुर्वर्ण्य-धर्म-विषय न होने से विषय़विरुद्ध वर्णन है । 10/51 में तो चण्डाल आदि के कार्यों का वर्णन किया गया है । जो चातुर्वर्ण्य विषय से सर्वदा ही बाह्य है । 2. अन्तर्विरोध- महर्षि-मनु ने कर्मानुसार वर्णव्यवस्था मानी है, जन्म से नहीं । कर्मानुसार उच्चवर्ण में उत्पन्न व्यक्ति निम्नवर्ण का और निम्नवर्ण का व्यक्ति उच्चवर्ण का हो सकता है । एतदर्थ 1/31, 1/86-91, 2/168, 4/245 तथा 10/65 श्लोक द्रष्टव्य है । किन्तु इन (46-56) श्लोकों में जन्म को आधार मानकर अम्बष्ठ, वैदेह, मागधादि के कार्य दिखाये है । (ख) मनु की मान्यता के अनुसार सभी प्रकार की हिंसा करना महापाप है । माँस-भक्षणादि कार्यों को मनु ने राक्षसों का भोजन माना है । परन्तु 10/48-49 श्लोकों में अन्य पशुओं की हिंसा, बिलों में रहने वाले प्राणियों को मारना और मछली मारनादि को आजीविका माना है । अतः यह मनुप्रोक्त नहीं है । (ग) 10/46 श्लोक में निम्नवर्णों को निन्दित कर्मो से आजीविका करने का वर्णन किया है और उन निन्दित कर्मों को द्विजों के ही कर्म माना है । जैसे व्यापार करना मागधों का कार्य (10/47 में) लिखा है । क्या जो द्विजो के कर्म है, वे निन्दित हो सकते है अथवा द्विजों के कर्मों को निन्दनीय कहा जा सकता है ?व्यापार जैसे वैश्य के कार्य को निन्दित बताना क्या मनु की मान्यता के विरुद्ध नही है ? (घ) मनु की मान्यता के अऩुसार मानव-समाज के चार वर्णों में विभक्त किया गया है । और जो इनसे भिन्न है उन्हें अनार्य (दस्यु) (10/45) में कहा है । इस आधार पर वर्णसंकरादि से उत्पन्न अनेक वर्ण मानना मनुसम्मत नहीं हो सकता । (ङ) मनु ने शूद्र को आर्य-वर्ण माना है और (9/35 में) उसे शुचिः =पवित्र (स्पृश्य) तथा उसे उत्तमगति पाने का अधिकारी बताया है । किन्तु यहाँ शूद्र को घृणित, निन्दनीय तथा अस्पृश्य (10/53) बताकर उसके साथ सम्पर्क करने का भी निषेध किया है । यह मनु की मान्यता से विरुद्ध है । क्योंकि शूद्र का कार्य द्विजों की सेवा करना है । क्या बिना सम्पर्क के ही सेवाकार्य हो सकता है ? 3. प्रसंगविरोध- 10/45 में ब्राह्मणादि चारों वर्णों से भिन्न व्यक्तियों को मनु ने ’दस्यु’ कहा है । उसके बाद दस्युओं के विषय में कथन करना तो कदापि संगत हो सकता है । किन्तु यह वर्णन 10/57-58 श्लोकों में किया गया है । इनके बीच में वर्णसंकर सन्तानों तथा चण्डालादि के कार्यों का वर्णन प्रसंगविरुद्ध है । टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
 
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