Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
पौण्ड्रक, औड्र, द्रविड़, काम्बोज, यवन, शक, पारक्ष पड़ गये हैं और हिंसा आदि पाह्वा चीन, फिरात, दरद खस इन देशों के निवासी क्षत्रिय लोग जनेऊ आदि संस्कारों तथा स्वाध्याय (वेदाध्ययन) यह कर्म न करने से शूद्र हो गये।
टिप्पणी :
44वाँ श्लोक स्पष्ट बतला रहा है कि किसी समय में सारे संसार में वैदिक धर्म और आर्य चिह्न प्रचलित रहे हैं और धीरे-धीरे लोग उससे पतित हो गये। संसार में दो प्रकृति के मनुष्य हैं एक उत्तम दूसरे नीच। उत्तम वह हैं कि जो संसार से नित्य स्वामी अर्थात् परमेश्वर की आज्ञाओं पर चलने वाले हैं और नीच वह हैं जो उसकी आज्ञा को न मान कर मनुष्य पूजा व मूर्तिपूजा में पापों को करते हैं क्योंकि प्रत्येक स्वामी का एक नियम होता है। इसी प्रकार उस नित्य परमेश्वर का नियम वेद है और वेद के अनुसार आचरण वाले आर्य और उसके विरुद्धाचरिणी दस्यु कहलाते हैं। क्योंकि वेद परमेश्वर के गुणों विशेषणों (सिफात) को हानि नहीं पहुँचाता और न कोई अन्य वस्तु को परमेश्वर के साथ सम्मिलित करता है अतएव वही ईश्वरीय आज्ञा को बताने वाला है। शेष ग्रन्थ (पुस्तकें) जिसमें लोगों के भाग आदि उल्लिखित हैं। मनुष्यों द्वारा रचित है उसमें जो बात वेद के अनुसार है वह जानने योग्य है और जो वेद के विरुद्ध है वह सर्वथा अमान्य व असत्य है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
4. शैलीगत-आधार- मनुस्मृति में मनु की शैली विधानात्मक है, ऐतिहासिक नहीं । परन्तु इन श्लोकों की शैली ऐतिहासिक है । इस विषय़ में निम्नलिखित कुछ उद्धरण देखिए—
कैवर्त्तमिति यं प्राहुरार्यावर्त्तनिवासिनः ।। (10/34)
शनकैस्तु क्रियालोपादिमाः क्षत्रियजातयः । वृषलत्वं गता लोके ।। (10/43)
पौण्ड्रकाश्चौड़द्रविडाः काम्बोजाः यवनाः शकाः ।। (10/44)
द्विजैरुत्पादितान् सुतान सदृशान् एव तानाहुः ।। (10/6)
अतः इस ऐतिहासिक शैली से स्पष्ट है कि वर्णव्यवस्था में दोष आने पर जन्म-मूलक जब भिन्न भिन्न उपजातियाँ प्रसिद्ध हो गईं, उस समय इन श्लोकों का प्रक्षेप होने से मनु से बहुत परवर्ती काल के ये श्लोक है ।
5. अवान्तरविरोध- (1) 12 वें श्लोक में वर्णसंकरों की उत्पत्ति का जो कारण लिखा है, 24 वें श्लोक में उससे भिन्न कारण ही लिखे है । (2) 32 वें श्लोक में सैरिन्ध्र की आजीविका केश-प्रसाधन लिखी है । 33 वें में मैत्रेय की आजीविका का घण्टा बजाना या चाटुकारुता लिखी है और 34 वें मार्गव की आजीविका नाव चलाना लिखी है । किन्तु 35 वें में इन तीनों की आजीविका मुर्दों के वस्त्र पहनने वाली और जूठन खाने वाली लिखी है । (3) 36, 49 श्लोकों के करावर जाति का और धिग्वण जाति का चर्मकार्य बताया है । जबकि कारावार निषाद की सन्तान है और धिग्वण ब्राह्मण की । (4) 43 वें में क्रियोलोप=कर्मो के त्याग से क्षत्रिय-जातियों के भेद लिखे है और 24 वें में भी स्ववर्ण के कर्मों के त्याग को ही कारण माना है परन्तु 12 वें में एक वर्ण के दूसरे वर्ण की स्त्री के साथ अथवा पुरुष के साथ सम्पूर्क से वर्णसंकर उत्पत्ति लिखी है । यह परस्पर विरुद्ध कथन होने से मनुप्रोक्त कदापि नही हो सकता ।
टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(इमाः क्षत्रिय जातयः) ये क्षत्रिय जातियाँ (शनकैः) धीरे-धीरे (क्रिया लोपात्) शास्त्रानुकूल कर्मों के लोप होने (ब्राह्मण आदर्शनेन च) और सदुपदेष्टा ब्राह्मणों से संसर्ग न रहने के कारण (वृषलत्वं गतः लोके) लोक में वर्ण-संकर हो गईं-पौण्ड्रिक, द्रविड़, काम्बोज, यवन, शक, पारद, पह्लव, चीन, किरात, दरद, खश।