Manu Smriti
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तपोबीजप्रभावैस्तु ते गच्छन्ति युगे युगे ।उत्कर्षं चापकर्षं च मनुष्येष्विह जन्मतः ।।10/42
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
प्रत्येक युग तप तथा बीज के कारण उत्तम व नीच वर्ण वाले लोग गिने जाते हैं अर्थात् समान वर्ण माता पिता से उत्पन्न उसी वर्ण के कहलाते हैं यदि उनमें उसी वर्ण के गुण हों।
टिप्पणी :
श्लोक में जो तप व बीज व उत्कर्षता व अपकर्षता बतलाई गई है उसका तात्पर्य यह है कि प्रथम आश्रम में अर्थात् 25 वर्ष की आयु पर्यन्त तो माता पिता के वर्ण वाला होता है शेष तीन आश्रमों में अपने गुण क्रमानुसार वर्ण वाला होता है। इससे स्पष्ट तथा गुण व कर्म को वर्ण चिह्न मानना चाहिये क्योंकि शास्त्रों में लिखा है कि ब्राह्मण का आठ वर्ष में यज्ञोपवीत हो, क्षत्रिय का ग्यारह वर्ष में हो तो वह सब बीज के कारण होते हैं क्योंकि प्रथम आश्रम में गुण कर्म होने में पिता का वर्ण पाया जाता है और अन्य आश्रमों में अपने गुण कर्म से जानना।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
4. शैलीगत-आधार- मनुस्मृति में मनु की शैली विधानात्मक है, ऐतिहासिक नहीं । परन्तु इन श्लोकों की शैली ऐतिहासिक है । इस विषय़ में निम्नलिखित कुछ उद्धरण देखिए— कैवर्त्तमिति यं प्राहुरार्यावर्त्तनिवासिनः ।। (10/34) शनकैस्तु क्रियालोपादिमाः क्षत्रियजातयः । वृषलत्वं गता लोके ।। (10/43) पौण्ड्रकाश्चौड़द्रविडाः काम्बोजाः यवनाः शकाः ।। (10/44) द्विजैरुत्पादितान् सुतान सदृशान् एव तानाहुः ।। (10/6) अतः इस ऐतिहासिक शैली से स्पष्ट है कि वर्णव्यवस्था में दोष आने पर जन्म-मूलक जब भिन्न भिन्न उपजातियाँ प्रसिद्ध हो गईं, उस समय इन श्लोकों का प्रक्षेप होने से मनु से बहुत परवर्ती काल के ये श्लोक है । 5. अवान्तरविरोध- (1) 12 वें श्लोक में वर्णसंकरों की उत्पत्ति का जो कारण लिखा है, 24 वें श्लोक में उससे भिन्न कारण ही लिखे है । (2) 32 वें श्लोक में सैरिन्ध्र की आजीविका केश-प्रसाधन लिखी है । 33 वें में मैत्रेय की आजीविका का घण्टा बजाना या चाटुकारुता लिखी है और 34 वें मार्गव की आजीविका नाव चलाना लिखी है । किन्तु 35 वें में इन तीनों की आजीविका मुर्दों के वस्त्र पहनने वाली और जूठन खाने वाली लिखी है । (3) 36, 49 श्लोकों के करावर जाति का और धिग्वण जाति का चर्मकार्य बताया है । जबकि कारावार निषाद की सन्तान है और धिग्वण ब्राह्मण की । (4) 43 वें में क्रियोलोप=कर्मो के त्याग से क्षत्रिय-जातियों के भेद लिखे है और 24 वें में भी स्ववर्ण के कर्मों के त्याग को ही कारण माना है परन्तु 12 वें में एक वर्ण के दूसरे वर्ण की स्त्री के साथ अथवा पुरुष के साथ सम्पूर्क से वर्णसंकर उत्पत्ति लिखी है । यह परस्पर विरुद्ध कथन होने से मनुप्रोक्त कदापि नही हो सकता । टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(तपोबीज प्रभावैः तु) लेकिन तपस्या अर्थात् श्रेष्ठ कर्म और बीज अर्थात् माता-पिता के संस्कारों के प्रभाव से (ते) यह लोग (युगे-युगे) प्रत्येक युग में (इह) इस लोक में ही (मनुष्येषु जन्मत उत्कर्षम् अपकर्षम् च गच्छन्ति) मनुष्यों में जाति सम्बन्धी ऊँचता और नीचता को प्राप्त होते हैं। अर्थात् कर्म और स्वभाव के कारण जातियाँ बदल जाती हैं।
 
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