Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
सैरिन्ध्री, भार्गव व मप्रेथी तीनों नीच जाति आयोगव की उस स्त्री में पिता की विभिन्नता से पृथक-पृथक पैदा होते हैं जो कि कफन उतार कर और द्वेष स्वभाव वाले हैं गर्हितभोजन करने वाले हैं।निपाद से वैदेहिक की स्त्री में अन्ध्र जाति वाला पुत्र और निपाद की स्त्री में भेद जाति वाला पुत्र उत्पन्न होता है। यह दोनों गाँव के बाहर वास करने वाले होते हैं।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
4. शैलीगत-आधार- मनुस्मृति में मनु की शैली विधानात्मक है, ऐतिहासिक नहीं । परन्तु इन श्लोकों की शैली ऐतिहासिक है । इस विषय़ में निम्नलिखित कुछ उद्धरण देखिए—
कैवर्त्तमिति यं प्राहुरार्यावर्त्तनिवासिनः ।। (10/34)
शनकैस्तु क्रियालोपादिमाः क्षत्रियजातयः । वृषलत्वं गता लोके ।। (10/43)
पौण्ड्रकाश्चौड़द्रविडाः काम्बोजाः यवनाः शकाः ।। (10/44)
द्विजैरुत्पादितान् सुतान सदृशान् एव तानाहुः ।। (10/6)
अतः इस ऐतिहासिक शैली से स्पष्ट है कि वर्णव्यवस्था में दोष आने पर जन्म-मूलक जब भिन्न भिन्न उपजातियाँ प्रसिद्ध हो गईं, उस समय इन श्लोकों का प्रक्षेप होने से मनु से बहुत परवर्ती काल के ये श्लोक है ।
5. अवान्तरविरोध- (1) 12 वें श्लोक में वर्णसंकरों की उत्पत्ति का जो कारण लिखा है, 24 वें श्लोक में उससे भिन्न कारण ही लिखे है । (2) 32 वें श्लोक में सैरिन्ध्र की आजीविका केश-प्रसाधन लिखी है । 33 वें में मैत्रेय की आजीविका का घण्टा बजाना या चाटुकारुता लिखी है और 34 वें मार्गव की आजीविका नाव चलाना लिखी है । किन्तु 35 वें में इन तीनों की आजीविका मुर्दों के वस्त्र पहनने वाली और जूठन खाने वाली लिखी है । (3) 36, 49 श्लोकों के करावर जाति का और धिग्वण जाति का चर्मकार्य बताया है । जबकि कारावार निषाद की सन्तान है और धिग्वण ब्राह्मण की । (4) 43 वें में क्रियोलोप=कर्मो के त्याग से क्षत्रिय-जातियों के भेद लिखे है और 24 वें में भी स्ववर्ण के कर्मों के त्याग को ही कारण माना है परन्तु 12 वें में एक वर्ण के दूसरे वर्ण की स्त्री के साथ अथवा पुरुष के साथ सम्पूर्क से वर्णसंकर उत्पत्ति लिखी है । यह परस्पर विरुद्ध कथन होने से मनुप्रोक्त कदापि नही हो सकता ।
टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार