Manu Smriti
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प्रतिकूलं वर्तमाना बाह्या बाह्यतरान्पुनः ।हीना हीनान्प्रसूयन्ते वर्णान्पञ्चदशैव तु ।।10/31
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
शूद्र से उत्पन्न ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्य की स्त्री में आयेक्षता, चाण्डाल तीनों चारों वर्णों की स्त्रियाँ और अपनी सवर्ण स्त्री में आप से नीचातिनीच पन्द्रह पुत्र उत्पन्न करते हैं और अनुलोमज से हैं। वैश्य व क्षत्रिय से उत्पन्न मागध वैदेहक सूत यह तीनों चारों वर्ण की स्त्री व अपने सवर्ण स्त्री से आप से नीच पन्द्रह पुत्र उत्पन्न करते हैं। इस प्रकार तीस पुत्र हुये अथवा 1-चाण्डाल, 2-क्षता, 3-आयो, 4-गव, 5-वैदेहिक, 6-मागध, 7-सूत, यह छः पर्व पूर्व पूर्व से अन्त-अन्त के उत्तम हैं यही छटवाँ कृत लोम करके पुत्रोत्पन्न करे तो पन्द्रह पुत्र उत्पन्न होते हैं जैसे चाण्डाल से पाँचों वर्ण की स्त्रियों में पाँच पुत्र उत्पन्न हुये, आयोगव से तीनों स्त्री में तीन पुत्र उत्पन्न हुये, वैदेहक से दोनों वर्ण की स्त्री में दो पुत्र उत्पन्न हुये, मागध से एक वर्ण की स्त्री में एक पुत्र उत्पन्न हुआ, सूत से आगे कोई नहीं है। इससे कोई प्रीतिलोम उत्पन्न नहीं होता इस रीति से पन्द्रह पुत्र उत्पन्न हुये। श्लोक में भृगुजी ने पुनः शब्द का उल्लंघन किया। उसका अर्थ यह है कि 1-सूत, 2-मागध, 3-आयो, 4-गर्व, 5-क्षता, 6-चांडाल, यह छः कर्म अन्तिम-अन्तिम से पूर्व-पूर्व के उत्तम हैं। यह छहों प्रतिलोम विधि से पुत्रोत्पन्न करें तो 15 पुत्र उत्पन्न हुये हैं, सूत से पाँचों वर्ण की स्त्री में पाँच मागध से चारों वर्ण की स्त्री में चार वैदेहक से तीनों वर्ण की स्त्री में तीन, अयोगव से दोनों वर्णों की स्त्री में दो, क्षता से एक वर्ण की स्त्री में एक, चाण्डाल से कोई नीच नहीं है। इससे अनुलोम नहीं होता। इस प्रकार पन्द्रह हुये। दोनों जुड़ने से 30 हुये।
टिप्पणी :
उत्पत्ति से वर्ण केवल ब्रह्मचर्याश्रम की समाप्ति तक उतनी ही गृहस्थाश्रम में गुरुकुल को व्यवस्थानुसार वर्ण होता है और जो यहाँ शूद्र और ब्राह्मण लिये गये हैं वह सब गुणकर्म से जानने चाहिये। 31वें श्लोक में यह दिखलाता है कि संस्कार भ्रष्ट पुरुषों की सन्तान भी वैसी पतित (गिरी हुई) होती है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
4. शैलीगत-आधार- मनुस्मृति में मनु की शैली विधानात्मक है, ऐतिहासिक नहीं । परन्तु इन श्लोकों की शैली ऐतिहासिक है । इस विषय़ में निम्नलिखित कुछ उद्धरण देखिए— कैवर्त्तमिति यं प्राहुरार्यावर्त्तनिवासिनः ।। (10/34) शनकैस्तु क्रियालोपादिमाः क्षत्रियजातयः । वृषलत्वं गता लोके ।। (10/43) पौण्ड्रकाश्चौड़द्रविडाः काम्बोजाः यवनाः शकाः ।। (10/44) द्विजैरुत्पादितान् सुतान सदृशान् एव तानाहुः ।। (10/6) अतः इस ऐतिहासिक शैली से स्पष्ट है कि वर्णव्यवस्था में दोष आने पर जन्म-मूलक जब भिन्न भिन्न उपजातियाँ प्रसिद्ध हो गईं, उस समय इन श्लोकों का प्रक्षेप होने से मनु से बहुत परवर्ती काल के ये श्लोक है । 5. अवान्तरविरोध- (1) 12 वें श्लोक में वर्णसंकरों की उत्पत्ति का जो कारण लिखा है, 24 वें श्लोक में उससे भिन्न कारण ही लिखे है । (2) 32 वें श्लोक में सैरिन्ध्र की आजीविका केश-प्रसाधन लिखी है । 33 वें में मैत्रेय की आजीविका का घण्टा बजाना या चाटुकारुता लिखी है और 34 वें मार्गव की आजीविका नाव चलाना लिखी है । किन्तु 35 वें में इन तीनों की आजीविका मुर्दों के वस्त्र पहनने वाली और जूठन खाने वाली लिखी है । (3) 36, 49 श्लोकों के करावर जाति का और धिग्वण जाति का चर्मकार्य बताया है । जबकि कारावार निषाद की सन्तान है और धिग्वण ब्राह्मण की । (4) 43 वें में क्रियोलोप=कर्मो के त्याग से क्षत्रिय-जातियों के भेद लिखे है और 24 वें में भी स्ववर्ण के कर्मों के त्याग को ही कारण माना है परन्तु 12 वें में एक वर्ण के दूसरे वर्ण की स्त्री के साथ अथवा पुरुष के साथ सम्पूर्क से वर्णसंकर उत्पत्ति लिखी है । यह परस्पर विरुद्ध कथन होने से मनुप्रोक्त कदापि नही हो सकता । टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
 
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