Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
आपद समय न होने पर यह नियम चारों वर्णों के हेतु कहा। अब आपद (विपत्ति) समय में इन्होंने उचित कर्मों को यथाक्रम कहते हैं।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
यह (9/336) वां श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है—
1. विषय-विरोध- (क) यद्यपि इस श्लोक में वर्णित विषय़ का और अगले अध्याय में कथित विषय का निर्देश किया गया है; जिसके कारण दशमाध्याय में आपत्कालीन-धर्मों का विषय अनेक टीकाकारो ने स्वीकार किया है । परन्तु इस अध्याय के अनुशीलन से पता चलता है कि इसमें आपत्कालीन कार्यों का वर्णन नहीं है। प्रत्युत चातुर्वर्ण्य के उन धऱ्मों का ही कथन है जो सामान्यदशा में ही कर्त्तव्य है । और इसकी पुष्टि 10/131 श्लोक में ’एष धर्मविधिः कृत्स्नश्चातुर्वर्ण्यस्य कीर्तितः’ कहकर की है ।
(ख) नवम-दशम् अध्यायों की विषयवस्तु को देखकर यह स्पष्ट होता है कि चातुर्वर्ण्य-धर्मविधि के अन्तर्गत ही राजधर्म (क्षत्रियधर्म) का वर्णन नवमाध्याय में 9/325 श्लोक तक किया है और वैश्य व शुद्र के कर्मों का विधान आगे हैं, जिसकी मनु ने 9/325 श्लोक में— ’इमं कर्मविधि विद्यात् कर्मशो वैश्यशूद्रयोः’ स्पष्ट रूप से कहा है । और इसके अनुसार ही 10/45 में चारों वर्णों से भिन्न म्लेच्छभाषा-भाषियों की दस्यु कहा है और 10/65 में कर्मानुसार वर्ण-परिवर्तन की बात कही है । जिसे कोई भी आपद्धर्म नहीं मान सकता । और आपद्धर्म के नाम पर वर्ण-संकरों का प्रक्षेप विषय-वस्तु को ध्यान में न रखकर किया गया है । जिन वर्ण-संकरों का कथन इस शास्त्र का विषय ही नही है और इन के धर्मो को कोई भी आपद्धर्म नहीं कह सकता ।
(ग) इन (नवम-दशम्) अध्यायों के वर्ण्यविषय पर चिन्तन तथा पूर्वापर प्रसंग पर विचार करने से यह स्पष्ट होता है कि दोनों अध्याओं के विषय-समाप्ति का सूचक श्लोक 10/131 है और इन अध्यायों का वर्ण्य विषय चातुर्वर्ण्य-कर्मविधि है । इससे नवमाध्याय के अन्तिम श्लोक को प्रक्षिप्त मानने से विषय-निर्देशक श्लोक का जो प्रभाव प्रतीत होता है, वह भी नही रहता । मनु ने ऐसा अन्यत्र भी किया है । जैसे 7-9 अध्यायों में राजधर्म का वर्णन है । इसलिए सप्तम व अष्टम अध्यायों के अन्त में विषय निर्देशक श्लोक नही दिया है । परन्तु वर्णसंकर और उपजातियों के प्रारम्भ होने पर और इनको जन्ममूलक मानने पर किसी व्यक्ति ने बहुत ही चतुरता से इन श्लोकों का मिश्रण किया है । और अपना अभीष्ट सिद्ध करने के लिये नवमाध्याय के अन्त में विषय-निर्देशक श्लोक मिलाकर ’एते चतुर्णा वर्णानामापद्धर्माः प्रकीर्त्तिताः’ 10/129 में उसकी समाप्ति दिखायी है । यदि इन आपद्धर्मों के निर्देशक श्लोकों को सत्य माना जाये तो इस दशमाध्याय में आपद्धर्म ही होना चाहिए । परन्तु इस अध्याय में कुछ श्लोकों को छोड़कर वर्णसंकरों के धर्मों का ही वर्णन मिलता है, आपद्धर्म का नही । और 10/130 श्लोक मनुप्रोक्त शैली का भी नही है । क्योंकि मनु पूर्वविषय की समाप्ति और अगले विषय का निर्देश अवश्य करते हैं । परन्तु 10/130 में अगले विषय़ का निर्देश बिल्कुल नही है ।
2. अन्तर्विरोध- (क) 10/130 में कहा है कि इन आपद्धर्मों के अनुष्ठान से सब वर्णों के मनुष्यों को परमगति अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है । यदि आपद्धर्मों से मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है, तो अनापद्धर्मो को किस लिये किया जाये ? और आपद्धर्म भी क्या है ? अपने से भिन्न वर्णों के कर्म करना । फिर सामान्य दशा में वर्णों के कर्मो और आपद्धर्म के क्रमों में क्या अन्तर होगा ? और आपद्धर्म की क्या परिभाषा होगी ? और वह कितने समय तक व्यवस्था मानी जाये ? इसका निर्देश किये बिना समस्त आपद्धर्म व्यवस्था ही माननी पडेगी । और यह भी विचारना होगा कि आपद्धर्म व्यावहारिक भी है अथवा नही ? आपद्धर्म की दशा में ब्राह्मण के लिये वैश्य के कृषि आदि कर्म करने का विधान किया है । क्या आपद्ग्रस्त ब्राह्मण बिना साधनों के कृषि के कार्य कर सकता है ? और कृषि का तो फल तुरन्त नही मिलता, कालापेक्ष होता है । क्या आपत्काल में पड़ा हुआ ब्राह्मण तब तक भूखा ही रहेगा, जब तक कृषि का फल अन्नादि न मिल जाये । और जो ब्राह्मण कृषि के साधनों को जुटा सकता है तो उसका आपत्काल ही क्या रहा ? उपनिषद् में एक आपत्कालीन दृष्टान्त आता है कि भूखे ऋषि ने जूठा अऩ्न तो खालिया किन्तु जूठा जल नही पिया । किन्तु ऐसी दशा में कृषि आदि कार्य कैसे सम्भव है ? अतः यही प्रतीत हो रहा है कि यह व्यवस्था मनुप्रोक्त नही है और जन्ममूलक वर्णव्यवस्था के प्रचलित होने पर ऐसी व्यवस्थाओं का किसी ने परवर्ती काल में प्रक्षेप किया है । मनु तो कर्मानुसार ही वर्ण-व्यवस्था का विधान करते है । और वैश्य को ब्राह्मणादि तीनो वर्णों को आजीविका का भार वहन करना होता है । दैविक अकालादि के कारण धान्यादि का अभाव सम्भव है अथवा शत्रु द्वारा आक्रान्त होने पर, अथवा रोगाक्रान्त होने के कारण परन्तु ऐसी दशा में ब्राह्मण भी कृषि कर्म को कैसे कर सकता है ? अतः यह आपत्कालीन व्यवस्था अव्यावहारिक होने से मौलिक नही है ।
(ख) और जिन श्लोकों में आपत्कालीन-धर्मों का विधान माना जाता है, उनमें किसी श्लोकमें भी ’आपत्’ शब्द का प्रयोग नही है
टिप्पणी :
यह (9/336) वां श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है—
1. विषय-विरोध- (क) यद्यपि इस श्लोक में वर्णित विषय़ का और अगले अध्याय में कथित विषय का निर्देश किया गया है; जिसके कारण दशमाध्याय में आपत्कालीन-धर्मों का विषय अनेक टीकाकारो ने स्वीकार किया है । परन्तु इस अध्याय के अनुशीलन से पता चलता है कि इसमें आपत्कालीन कार्यों का वर्णन नहीं है। प्रत्युत चातुर्वर्ण्य के उन धऱ्मों का ही कथन है जो सामान्यदशा में ही कर्त्तव्य है । और इसकी पुष्टि 10/131 श्लोक में ’एष धर्मविधिः कृत्स्नश्चातुर्वर्ण्यस्य कीर्तितः’ कहकर की है ।
(ख) नवम-दशम् अध्यायों की विषयवस्तु को देखकर यह स्पष्ट होता है कि चातुर्वर्ण्य-धर्मविधि के अन्तर्गत ही राजधर्म (क्षत्रियधर्म) का वर्णन नवमाध्याय में 9/325 श्लोक तक किया है और वैश्य व शुद्र के कर्मों का विधान आगे हैं, जिसकी मनु ने 9/325 श्लोक में— ’इमं कर्मविधि विद्यात् कर्मशो वैश्यशूद्रयोः’ स्पष्ट रूप से कहा है । और इसके अनुसार ही 10/45 में चारों वर्णों से भिन्न म्लेच्छभाषा-भाषियों की दस्यु कहा है और 10/65 में कर्मानुसार वर्ण-परिवर्तन की बात कही है । जिसे कोई भी आपद्धर्म नहीं मान सकता । और आपद्धर्म के नाम पर वर्ण-संकरों का प्रक्षेप विषय-वस्तु को ध्यान में न रखकर किया गया है । जिन वर्ण-संकरों का कथन इस शास्त्र का विषय ही नही है और इन के धर्मो को कोई भी आपद्धर्म नहीं कह सकता ।
(ग) इन (नवम-दशम्) अध्यायों के वर्ण्यविषय पर चिन्तन तथा पूर्वापर प्रसंग पर विचार करने से यह स्पष्ट होता है कि दोनों अध्याओं के विषय-समाप्ति का सूचक श्लोक 10/131 है और इन अध्यायों का वर्ण्य विषय चातुर्वर्ण्य-कर्मविधि है । इससे नवमाध्याय के अन्तिम श्लोक को प्रक्षिप्त मानने से विषय-निर्देशक श्लोक का जो प्रभाव प्रतीत होता है, वह भी नही रहता । मनु ने ऐसा अन्यत्र भी किया है । जैसे 7-9 अध्यायों में राजधर्म का वर्णन है । इसलिए सप्तम व अष्टम अध्यायों के अन्त में विषय निर्देशक श्लोक नही दिया है । परन्तु वर्णसंकर और उपजातियों के प्रारम्भ होने पर और इनको जन्ममूलक मानने पर किसी व्यक्ति ने बहुत ही चतुरता से इन श्लोकों का मिश्रण किया है । और अपना अभीष्ट सिद्ध करने के लिये नवमाध्याय के अन्त में विषय-निर्देशक श्लोक मिलाकर ’एते चतुर्णा वर्णानामापद्धर्माः प्रकीर्त्तिताः’ 10/129 में उसकी समाप्ति दिखायी है । यदि इन आपद्धर्मों के निर्देशक श्लोकों को सत्य माना जाये तो इस दशमाध्याय में आपद्धर्म ही होना चाहिए । परन्तु इस अध्याय में कुछ श्लोकों को छोड़कर वर्णसंकरों के धर्मों का ही वर्णन मिलता है, आपद्धर्म का नही । और 10/130 श्लोक मनुप्रोक्त शैली का भी नही है । क्योंकि मनु पूर्वविषय की समाप्ति और अगले विषय का निर्देश अवश्य करते हैं । परन्तु 10/130 में अगले विषय़ का निर्देश बिल्कुल नही है ।
2. अन्तर्विरोध- (क) 10/130 में कहा है कि इन आपद्धर्मों के अनुष्ठान से सब वर्णों के मनुष्यों को परमगति अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है । यदि आपद्धर्मों से मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है, तो अनापद्धर्मो को किस लिये किया जाये ? और आपद्धर्म भी क्या है ? अपने से भिन्न वर्णों के कर्म करना । फिर सामान्य दशा में वर्णों के कर्मो और आपद्धर्म के क्रमों में क्या अन्तर होगा ? और आपद्धर्म की क्या परिभाषा होगी ? और वह कितने समय तक व्यवस्था मानी जाये ? इसका निर्देश किये बिना समस्त आपद्धर्म व्यवस्था ही माननी पडेगी । और यह भी विचारना होगा कि आपद्धर्म व्यावहारिक भी है अथवा नही ? आपद्धर्म की दशा में ब्राह्मण के लिये वैश्य के कृषि आदि कर्म करने का विधान किया है । क्या आपद्ग्रस्त ब्राह्मण बिना साधनों के कृषि के कार्य कर सकता है ? और कृषि का तो फल तुरन्त नही मिलता, कालापेक्ष होता है । क्या आपत्काल में पड़ा हुआ ब्राह्मण तब तक भूखा ही रहेगा, जब तक कृषि का फल अन्नादि न मिल जाये । और जो ब्राह्मण कृषि के साधनों को जुटा सकता है तो उसका आपत्काल ही क्या रहा ? उपनिषद् में एक आपत्कालीन दृष्टान्त आता है कि भूखे ऋषि ने जूठा अऩ्न तो खालिया किन्तु जूठा जल नही पिया । किन्तु ऐसी दशा में कृषि आदि कार्य कैसे सम्भव है ? अतः यही प्रतीत हो रहा है कि यह व्यवस्था मनुप्रोक्त नही है और जन्ममूलक वर्णव्यवस्था के प्रचलित होने पर ऐसी व्यवस्थाओं का किसी ने परवर्ती काल में प्रक्षेप किया है । मनु तो कर्मानुसार ही वर्ण-व्यवस्था का विधान करते है । और वैश्य को ब्राह्मणादि तीनो वर्णों को आजीविका का भार वहन करना होता है । दैविक अकालादि के कारण धान्यादि का अभाव सम्भव है अथवा शत्रु द्वारा आक्रान्त होने पर, अथवा रोगाक्रान्त होने के कारण परन्तु ऐसी दशा में ब्राह्मण भी कृषि कर्म को कैसे कर सकता है ? अतः यह आपत्कालीन व्यवस्था अव्यावहारिक होने से मौलिक नही है ।
(ख) और जिन श्लोकों में आपत्कालीन-धर्मों का विधान माना जाता है, उनमें किसी श्लोकमें भी ’आपत्’ शब्द का प्रयोग नही है
टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
आपत्काल को छोड़कर शेष साधारण अवस्था में वर्णों के कर्मों की जो शुभ विधि है, वह अब तक वर्णन की गई। अब क्रमशः आपत्काल के कर्मों की विधि सुनो।