Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
दुष्ट और दुराचारी मनुष्य वेद पढ़ने, त्याग, नित्य यज्ञ, तप आदि और धर्म के कर्म करने से शुद्ध नहीं होता।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
विप्रदुष्टभावस्य जो अजितेन्द्रिय दुष्टाचारी पुरूष है, उस पुरूष के वेदाः त्यागाः यज्ञाः नियमाः तपांसि वेद पढ़ना, त्याग करना, (संन्यास) लेना, यज्ञ अग्निहोत्रादि करना, नियम ब्रह्मचर्याश्रम आदि करना, तप निन्दास्तुति, और हानि - लाभ आदि द्वन्द्व का सहन करना आदि कर्म कर्हिचित् कदापि सिद्धि न गच्छन्ति सिद्ध नहीं हो सकते ।
(सं० वि० वेदा० सं०)
टिप्पणी :
‘‘जो दुष्टाचारी अजितेन्द्रिय पुरूष है उसके वेद, त्याग, यज्ञ, नियम और तप तथा अन्य अच्छे काम कभी सिद्धि को प्राप्त नहीं होते ।’’
(स० प्र० तृतीय समु०)
‘‘जो अजितेन्द्रिय पुरूष है उसको विप्रदुष्ट कहते हैं । उसके करने से न वेदज्ञान, न त्याग, न यज्ञ, न नियम और न धर्माचरणसिद्धि को प्राप्त होते हैं । किन्तु ये सब जितेन्द्रिय धार्मिक जन को सिद्ध होते हैं ।’’
(स० प्र० दशम समु०)
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
वेदाध्ययन, त्याग, यज्ञ, नियम और तप, ये सब अजितेन्द्रिय (विशेषतया प्रदुष्ट हैं भाव जिसके) ब्रह्मचारी को कभी सिद्ध नहीं होते।