Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
वैश्य यह इच्छा न करे कि पशु रक्षा न करेंगे, कृषि आदि करता हुआ भी पशुओं को अवश्य रक्षा करें और जब तक वैश्य पशुओं की रक्षा करें तब तक अन्य वर्णन करें।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये दोनों (9/327-328) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त हैं—
1. प्रसंग-विरोध- यहाँ पूर्वापर श्लोकों में वैश्य के कर्मों के वर्णन का प्रसंग है । परन्तु इन श्लोकों में उस प्रसंग को भंग करके कुछ अन्य बातों का ही कथन किया गया है । प्रजापति द्वारा पशुओं की उत्पत्ति करके वैश्यों को देना, ब्राह्मणों तथा क्षत्रियों के लिए सारी प्रजाओं को देना, इत्यादि बातें प्रसंगविरुद्ध हैं ।
2. शैली-विरोध- इन श्लोकों की वर्णन-शैली से स्पष्ट हो रहा है कि ये श्लोक उस परवर्ती-काल की रचनायें है, जब वैश्यों में पशु-पालन के प्रति अरुचि होने लगी । अन्यथा पशु-पालन करना जब वैश्या का निश्चित कर्म है, तब उसे करना ही चाहिए । फिर प्रजापति द्वारा पशुओं की उत्पत्ति की बात कहना और 328 श्लोकोंक्त बातें निरर्थक ही हैं ।
3. अन्तर्विरोध- 328 वें श्लोक में यह कथन कि ’जब तक वैश्य पशुपालन करे, तब तक अन्यवर्ण वाले पशु-पालन न करें ’ मनु के संविधान से विरुद्ध है । पशुपालन करना वैश्यों का ही कर्म है । इस विषय में 1/90 तथा 9/326 श्लोकों मे मनु की मान्यता दृष्टव्य है । और यदि वैश्य अपने कर्त्तव्यों का पालन नहीं करते, तो उसका उपाय यह नहीं कि उन कर्मों को दूसरे वर्ण वाले करने लग जाये । ऐसे कर्त्तव्य-हीनों को (7/17, 35 के अनुसार) राजा द्वारा दण्ड दिया जाना चाहिए । अतः ये श्लोक असंगतादि दोषों के कारण प्रक्षिप्त है ।
टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
’मैं पशुओं की रक्षा नहीं करूँगा‘ ऐसा वैश्य का विचार न होना चाहिए। वैश्य जब तक पशु-रक्षा करते रहें, अन्य लोग इस काम में अपना ध्यान न लगावें।