Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
ब्राह्मण चाहे विद्वान् व अविद्वान् हो अग्नि के समान बड़ा देवता है।
टिप्पणी :
317वें श्लोक में अविद्वान् से तात्पर्य सांसारिक ज्ञान शून्य ब्राह्मण से है अन्यथा ब्रह्मविद्या का न जानने वाला ब्राह्मण कहलाता है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये सभी (9/313-323) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है—
1. विषय-विरोध- विषय़-संकेतक 9/252, 253 और 312 श्लोको से स्पष्ट है कि ’लोककण्टक चोरादि के निवारण’ का यहाँ प्रसंग है । किन्तु इन श्लोकों ने निरर्थक ब्राह्मणवाद की प्रशंसा करके उस प्रसंग को भंग कर दिया है, अतः ये श्लोक प्रक्षिप्त हैं ।
2. शैलीविरोध- इस सभी श्लोकों की शैली पक्षपातपूर्ण एवं अतिशयोक्तिपूर्ण होने से मनु की शैली से विरुद्ध है । मनु की शैली में न्यायोचित समता की बाते होती है, पक्षपात, दुराग्रह आदि की नहीं । अतः ये श्लोक शैलीविरुद्ध है ।
3. अन्तर्विरोध- इन श्लोकों का यह सम्पूर्ण प्रसंग मनु की मान्यताओं से विरुद्ध होने से प्रक्षिप्त है ।
(क) जैसे 313 वें श्लोक में ब्राह्मण को अत्यन्त क्रोधी कहा है जबकि 1/19,27, 6/16 में ब्राह्मण के लिये क्रोध करना सर्वथा त्याज्य माना है ।
(ख) 314-316 श्लोकों में ब्राह्मण को समुद्र, चन्द्रमा, लोकपालादि का बनाने वाला माना है, जबकि 2/160, 178, 4/163 इत्यादि श्लोकों में परमात्मा को इनको बनाने वाला माना है । मनुष्य की शक्ति चन्द्रादि लोकों को बनाने की नही है । अतः यह काल्पनिक एवं उपहास्यास्पद बात ही लिखी है ।
(ग) 317-319 श्लोकों में अविद्वान् और निन्दित-आचरण करने वाले को भी ब्राह्मण माना है । यह मनु की मान्यता से विरुद्ध है । मनु तो कर्मणा ही वर्णव्यवस्था मानते है । इस विषय में 2/103, 4/245, 10/65 श्लोक द्रष्टव्य है ।
(घ) 323 श्लोक में जुर्माने का धन ब्राह्मणों को देने के लिये कहा है, जब कि 7-9 अध्यायों में इस धन को राजा को देना चाहिये ।
(ङ) और 314 वे श्लोक में कहा है कि ब्राह्मणों ने अग्नि को सर्वभक्षी, समुद्र को न पीने योग्य, और चन्द्रमा को क्षीण होने वाला कर दिया है । ये सब बातें असम्भव, अयुक्तियुक्त होने से मनुप्रोक्त नही है । क्योंकि परमेश्वर ने जो गुण जिसमें बताया है, उसे कोई अन्यथा नहीं कर सकता और चन्द्रमा को क्षीण होने वाला कहना अज्ञानतापूर्ण बात है । यह तो हमें पृथिवी आदि की छाया वश ही क्षीण होने वाला प्रतीत होता है यथार्थ में नहीं ।
(च) और 320 में क्षत्रियों को ब्राह्मण से उत्पन्न होने वाला कहना, 316 में सब लोकों का आश्रय ब्राह्मणों को मानना और 321 में जल से अग्नि की उत्पत्ति मानना (जब कि वायोर्गनिः अग्नेरापः अद्भ्यः पृथिवी इस प्रमाण से अग्नि की उत्पत्ति वायु से मानी है । इत्यादि बातें सृष्टिक्रम विरुद्ध होने से मनुसम्मत कदापि नही हो सकती । इत्यादि अन्तर्विरोधों के कारण ये सभी श्लोक प्रक्षिप्त है ।