Manu Smriti
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सप्ताङ्गस्येह राज्यस्य विष्टब्धस्य त्रिदण्डवत् ।अन्योन्यगुणवैशेष्यान्न किं चिदतिरिच्यते ।।9/296

 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
इस लोक में परस्पर एकत्र सप्तांगी राज्य में पारस्परिक विचित्र सहायता से त्रिदण्ड की नाईं कोई अंग निष्फल व अधिक नहीं हैं। यद्यपि प्रथम अंग को अधिक कहा तो भी इन सातों अंगों के बीच एक अंग के कार्य को दूसरा अंग स्वयं नहीं कर सकता। इससे अंग को भी आवश्यकता होती है इस कारण से अधिक अंग होने का निषेध है। इसमें पति के त्रिदुग्रह की उपमा दी है। जैसे तीनों दण्ड एकत्र कर ऊपर चार अंगुल गऊ के बाल से बाँधने से परस्पर सम्बन्धित हो जाते हैं और त्रिदण्ड धारण से शास्त्रार्थ में कोई दण्ड अधिक नहीं है वैसे ही उपरोक्त सप्तांगी राज्य को जानना चाहिये।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
इसमें तीन पायों पर स्थित तिपाई के समान सात प्रकृतिरूपी अंगो पर स्थित इस राज्य में सभी अंगो के अपनी- अपनी विशेषताओं से युक्त और परस्पर आश्रित होने के कारण कोई अंग फालतू अर्थात् छोड़ने योग्य नही है ।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
जैसे तीन डंडे मिलाकर तिपाई आदि बना लेते हैं, तो वे तीनों पाए एक दूसरे के सहारे ठहरे हुए हैं। इनमें से अपने-अपने विशेष गुणों के कारण कोई किसी से कम बढ़ नहीं है।
 
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