Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
इन्द्रियों के संसर्ग से जीवदुःखी होता है और इन्द्रियों के सम्बन्ध के परित्याग से जीव सिद्धि प्राप्त करता है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
इन्द्रियाणां प्रसगेन जीवात्मा इन्द्रियों के साथ मन लगाने से असंशयम् निःसंदेह दोषम् ऋच्छति दोषी हो जाता है तु तानि सन्नियम्य एव और उन पूर्वोक्त (२।६५-६७) दश इन्द्रियों को वश में करके ही ततः पश्चात् सिद्धि नियच्छति सिद्धि को प्राप्त होता है ।
टिप्पणी :
‘‘जीवात्मा इन्द्रियों के वश होके निश्चित बड़े - बड़े दोषों को प्राप्त होता है और जब इन्द्रियों को अपने वश करता है तभी सिद्धि को प्राप्त होता है ।’’
(स० प्र० तृतीय समु०)
‘‘जो इन्द्रिय के वश होकर विषयी, धर्म को छोड़कर अधर्म करने हारे अविद्वान् हैं, वे मनुष्यों में नीच जन्म बुरे - बुरे दुःखरूप जन्म को पाते हैं ।’’
(स० प्र० नवम समु०)
‘‘इन्द्रियों को विषयासक्ति और अधर्म में चलाने से मनुष्य निश्चित दोष को प्राप्त होता है और जब इनको जीतकर धर्म में चलाता है तभी अभीष्ट सिद्धि को प्राप्त होता है ।’’
(स० प्र० दशम समु०)
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
ब्रह्मचारी इन्द्रियों की फंसावट से निस्सन्देह दोष को पाता है। और उन्हीं को वश में करके फिर सिद्धि को पा लेता है।