Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
ग्यारहवाँ मन है जो अपने गुणों के कारण द्वारा ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रिय के नाम से बोला जाता है। मन के जीतने (वश में करने) से शेष दशों इन्द्रियाँ जीती जाती हैं।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
. (एकादशं मनः) ग्यारहवां मन है स्वगुणेन उभयात्मकम् वह अपने स्तुति आदि गुणों से दोनों प्रकार के इन्द्रियों से सम्बन्ध करता है जिस मन के जीतने में एतौ ज्ञानेन्द्रिय तथा कर्मेन्द्रिय दोनों जितौ जीत लिये जाते हैं ।
(सं० वि० वेदारम्भ संस्कार)
टिप्पणी :
ज्ञेयम् ऐसा समझना चाहिए ............... । पंच्चकौ गणौ पांचों - पांचों इन्द्रियों के दोनों समुदाय अर्थात् दसों इन्द्रियां................... ।
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
ग्याहवां इन्द्रिय मन है, जोकि अपने स्मृति आदि गुणों से दोनों प्रकार के इन्द्रियों से सम्बन्ध करता है। इस मन के जीत लेने पर ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रिय, दोनों जीते जाते हैं।