Manu Smriti
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यश्चापि धर्मसमयात्प्रच्युतो धर्मजीवनः ।दण्डेनैव तं अप्योषेत्स्वकाद्धर्माद्धि विच्युतम् ।।9/273
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
जो ब्राह्मण अपने नित्य नैमिक्तिक कर्मों के स्थान पर दूसरों के हेतु जप यज्ञादि कर्म करके जीवन निर्वाह करता हुआ अपने धर्म से प्रनिक्षण पृथक और च्युत रहता हो राजा उस ब्राह्मण को भी दण्ड देवे।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
यह (9/273 वां) श्लोक निम्नलिखित कारण से प्रक्षिप्त है— 1. प्रसंगविरोध- यहाँ पूर्वापर श्लोकों में राजकर्मचारियों के चोर की भांति आचरण करने पर चोरों के सहायको के लिये दण्ड का विधान किया है । इनके बीच में धर्म-भ्रष्ट ब्राह्मण के लिये दण्ड का विधान प्रसंगविरुद्ध है । अतः यह श्लोक प्रक्षिप्त है ।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
जो कोई हाकिम हो और धर्म के मार्ग से गिर गया हो, उस ऐसे धर्म से च्युत पुरुष को भी दण्ड देना चाहिये।
 
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