Manu Smriti
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यावानवध्यस्य वधे तावान्वध्यस्य मोक्षणे ।अधर्मो नृपतेर्दृष्टो धर्मस्तु विनियच्छतः ।।9/249

 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
जो प्राणदण्ड के अयोग्य है उसके वश में जितना पाप होता है उतना ही पाप प्राणदण्ड के योग्य पुरुष को छोड़ देने से होता है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
अदण्डनीय को दण्ड देने पर राजा को जितना अधर्म होना शास्त्र में माना गया है उतना ही दण्डनीय को छोड़ने में अधर्म होता है न्यायानुसार दण्ड देना ही धर्म है ।
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
दण्ड न देने के योग्य निरपराधी को दण्ड देने में राजा का जितना अपराध देखा गया है, उतना ही दण्ड देने के योग्य अपराधी को छोड़ने में है। और, इसके विपरीत अपराधी को यथोचित दण्ड देने में ही धर्म की रक्षा है। अतः, राजा को कभी अपराधियों को दण्ड दिए बिना न छोड़ना चाहिए।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
राजा को जितना दोष निर्दोष के दण्ड देने में लगता है उतना ही दोषी के छोड़ने में लगता है। धर्म यही है कि अपराध की रोकथाम की जाय।
 
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