Manu Smriti
 HOME >> SHLOK >> COMMENTARY
ब्रह्महा च सुरापश्च स्तेयी च गुरुतल्पगः ।एते सर्वे पृथग्ज्ञेया महापातकिनो नराः ।।9/235
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
ब्राह्मण को मारने वाला, मद्य पीने वाला, ब्राह्मण का सोना सोलह भाषा के परिमाण का चुराने वाला, गुरुपत्नी वा माता से भोग करने वाला यह चारों महापापी कहलाते हैं।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये सभी (9/235-248) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है— 1. प्रसंग-विरोध- यहाँ पूर्वापर श्लोकों मे (9/234 और 250 आदि में) 18 प्रकार के विवादों के पश्चात् उपसंहारात्मक वर्णन है परन्तु 235-243 श्लोकों मे ब्रह्महत्यारा, शराबी आदि महापापियों के लिये दण्ड की व्यवस्था का वर्णन उस प्रसंग को भंग करने के कारण असंगत है । 2. विषयविरोध- (क) विषय-संकेतक 9/220 वें श्लोक के अनुसार यहां द्यूत-सम्बन्धी विवादों के निर्णय का विषय है । और 8/7 तथा 9/250 विषय संकेतक श्लोकों के अनुसार द्यूत-धर्म अठारह प्रकार के विवादों में अन्तिम विवाद है । इसके वर्णन के पश्चात उपसंहारात्मक श्लोकों का कथन (9/231-234, 249) तो सुसंगत होता है परन्तु इन श्लोकों में द्यूतधर्म और उपसंहार से बाह्य वर्णन होने से ये श्लोक विषय-बाह्य है । (ख) सप्तम, अष्टम तथा नवमाध्यायों में राजा की दण्डव्यवस्था का विधान है, प्रायश्चित का नही । अतः 236 वें श्लोक में प्रायश्चित न करने पर दण्ड का विधान किया है । यह विषय से विरुद्ध है । राजा तो अपने नियमानुसार दण्ड अवश्य देगा उसमें प्रायश्चित का कथन उचित नही । प्रायश्चित की बात प्रायश्चितविषय में ही कहनी चाहिए । (ग) मद्यपानादि महापापों के दण्ड का विधान अपने-अपने विषय़नुसार करना उचित था और मनु ने उसका विधान विषयानुसार किया भी है । यहां उनका कथन करना विषय-बाह्य और पुनरुक्त होने से प्रक्षिप्त है । 3. अन्तर्विरोध- (क) इन श्लोकों का आधारभूत श्लोक 235 वां है । इस श्लोक में कही बातों का मनुप्रोक्त पूर्व मान्यताओ से विरोध है । मनु ने 8/386 श्लोक में विशिष्ट अपराधियों में चोर, परस्त्रीगामी, दुष्टवाक्, लुटेरा, हत्यारादि को गिनाया है । यह एक सार्वजनिक व्यवस्था मनु ने लिखी है । परन्तु यहां केवल ब्राह्मण को मारने वाला या गुरु की स्त्री से संभोग करने वाला, इस प्रकार के व्यक्तिविशेषों को आधार मानकर दण्ड का विधान किया है । यह उचित व न्याययुक्त व्यवस्था नही है । क्योंकि जो क्षत्रियादि को मारने वाला अथवा उनकी स्त्रियों से संभोग करने वाला है, उसके दण्ड की व्यवस्था क्यों नही लिखी ? (ख) और इन्हीं अपराधों पर पूर्वोक्त दण्डव्यवस्था से इन श्लोकों का दण्ड का विधान भिन्न होने से विरुद्ध है । जैसे- हत्या करने वाले को (8/286-288 में), चोरी करने वाले को (8/301-338 में), परस्त्रीगामी को (8/352-372 में), मद्यपान करने वाले को (9/225) में दण्ड विधान करने वाले श्लोकों की समता इन श्लोकों के दण्डों से करने पर यह विरोध स्पष्ट हो जाता है । (ग) 241-242, 247 में जो पक्षपातपूर्ण दण्ड की व्यवस्था है, वह 9/307, 311, 8/335-338 श्लोकों में कही व्यवस्था से विरुद्ध है । (घ) 243-247 श्लोकों की व्यवस्था उन सभी व्यवस्थाओं से विरुद्ध है, जिनमें अपराधियो को दण्ड देने या जुर्माना करने, सर्वस्वहरण करने की राजा की आज्ञा दी है । इस विषय़ में 8/288,320,322,335-338 इत्यादि श्लोक द्रष्टव्य है । 4. शैलीवरोध- (क) 239 में ’तन्मनोरनुशासनम्’ वाक्य से स्पष्ट है कि यह श्लोक मनु से भिन्न किसी व्यक्ति ने मनु के नाम से बनाकर मिलाया है । और इसके प्रक्षिप्त सिद्ध होने पर इससे सम्बद्ध सभी श्लोक प्रक्षिप्त है । (ख) इसी प्रकार केवल ब्राह्मण को पीड़ा देने वाले शूद्र को दण्ड का विधान (248), महापातकी के धन पर ब्राह्मण का अधिकार (244) और 241-242 श्लोकों में ब्राह्मण को दूसरे वर्णों की अपेक्षा दण्ड में छूट पक्षपातपूर्ण होने से मनुप्रोक्त नही है । (ग) और 244 में वरुणदेव की कल्पना और 245 में वरुण को राजा के दण्ड-धन का अधिकारी मानना, 246-247 में दीर्घजीवी होना, बच्चों का न मरना आदि बाते अयुक्तियुक्त एवं काल्पनिक होने से पौराणिक युग की देन है, अतः ये श्लोक परवर्ती होने से प्रक्षिप्त है ।
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
ब्रह्मघाती, शराबी, उपर्युक्त तथा अन्य प्रकार के चोर और व्यभिचारी, इन सब मनुष्यों को पृथक् पृथक् महापातकी समझना चाहिए।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
ब्राह्मण का घातक, शराब पीने वाला, गुरु की स्त्री से भोग करने वाला, यह सब अलग-अलग महापातकी समझे ज जाने चाहिये।
 
NAME  * :
Comments  * :
POST YOUR COMMENTS