Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
ब्राह्मण सब जीवों से प्रेम (प्रीति) रक्खे और केवल जप ही को करे तो सब सिद्धि प्राप्त हो सकती है। क्योंकि सब सिद्धियों का मूल मन की एकाग्रता और ज्ञान है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
२।५४ - ६२ (२।७९-८७) तक ९ श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त हैं -
(क) ये सभी श्लोक प्रसंग विरूद्ध हैं । २।५३ श्लोक में ओंकार और गायत्री के जप का फलकथन किया गया है और उसके बाद गायत्री तथा ओंकार जप का अतिशयोक्ति - पूर्ण वर्णन किया गया है । यथार्थ में फलकथन करने पर ही इनके जप की बात समाप्त हो गई है ।
(ख) २।५४ तथा २।५७ श्लोकों में काल की अवधि बताकर जप करने से बड़े पापों से मुक्ति कही गई है । पापों से मुक्ति की बात मनु की मान्यता से विरूद्ध तथा अवैदिक है । क्यों कि जो जैसा कर्म करता है, वह वैसा फल प्राप्त करता है, इस मान्यता से तथा ईश्वर की न्यायव्यवस्था से इसका विरोध है । और यदि गायत्री जप से ही पापों से मुक्ति मिलने लगे, तो कोई भी पाप करने से भयभीत न होगा, क्यों कि उसका इतना सुगम उपाय मिलने पर पापों के प्रति और अधिक उत्साह ही होगा ।
(ग) मनुस्मृति में मुक्ति - प्राप्ति के अनेक साधन (परमात्मध्यान, इन्द्रियसंयम, तप, विद्या, यमनियमों का पालनादि) बताये हैं । यदि गायत्री जप से ही मुक्ति - प्राप्त हो जाती हैं, तो दूसरे समस्त साधन निरर्थक ही हो जायेंगे ।
(घ) २।५६ वें श्लोक में गायत्री को वेद का मुख, २।५८ में अनश्वर तथा सर्वोत्तम तप कहा है । २।५७ में गायत्री का तीन वर्ष तक प्रतिदिन जप करने से परमब्रह्म की प्राप्ति तथा वायुरूप होकर विचरने वाला मना है । यह अतिशयपूर्ण तथा परस्पर विरोधी कथन होने से सत्य नहीं है । गायत्री - मन्त्र भी वेद ही का है, अतः वेद की भांति वह भी नित्य है । फिर उसे अनश्वर बताना अनावश्यक नहीं है । गायत्री का जप ब्रह्मचारी के लिये आवश्यक बताया है और ब्रह्मचर्य की अवधि २५,३६,४८ वर्ष तक है । यदि तीन वर्ष तक जपने से ही परब्रह्म की प्राप्ति हो सकती है, तो ब्रह्मचर्य की समस्त अवधि में अधिक जप करना निरर्थक ही हो जाता है । और मनु ने वेद तथा ईश्वर को सर्वोपरि माना है, वेदाभ्यास को तथा प्राणायाम को परम तप कहा है । और यहाँ गायत्री को सर्वोपरि तथा उसके जप को परम तप कहा है । इनमें परस्पर विरोध होने से गायत्री -सम्बन्धी वर्णन सत्य नहीं है । और वेद परमेश्वर का ज्ञान है, गायत्री वेद का मन्त्र है, फिर यह परमेश्वर से ऊपर सर्वोपरि कैसे हो सकती है ।
(ड) २।५९ वें श्लोक में वैदिक यज्ञादि क्रियाओं को नाशवान् बताने में लेखक का क्या तात्पर्य है ? क्रियायें तो सभी करने के बाद समाप्त हो जाती है, फिर यज्ञादि क्रियाओं के विषय में ऐसा कहना निरर्थक है । और यदि इनके फल के विषय में तात्पर्य हो, तो मिथ्या ही है । क्यों कि वेदोक्त यज्ञादि कर्मों को मनु ने धर्म माना है और धर्म जन्म - जन्मान्तर में श्रेष्ठता का कारण है और मोक्षप्राप्ति व ब्रह्मप्राप्ति का साधन है । इसलिये यज्ञादि क्रियायें निष्फल कैसे हो सकती हैं ?
(च) २।५५ वें श्लोक में वर्णों के साथ ‘योनि’ शब्द का प्रयोग भी द्विजों को जन्मना वर्णव्यवस्था बताने के लिये प्रक्षेप किया गया है । यह मनु की मान्यता के विरूद्ध है । मनु ने २।१३० में ‘शूद्राणामेव जन्मतः’ कहकर जन्म से शूद्र की ज्येष्ठता मानी है । ब्राह्मणादि वर्ण तो कर्मों के कारण ही ज्येष्ठ होते हैं, जन्म से नहीं । और २।१३२, २।१३३ श्लोकों में अनपढ़ तथा वेदज्ञानरहित को ब्राह्मण मानने से स्पष्ट रूप से मना किया है । इस से जन्म - जात वर्णव्यवस्था का प्रत्याख्यान हो जाता है । और मनु ने शूद्र को एक - जाति - एकजन्मा और ब्राह्मणादि को द्विज इसलिये ही कहा है कि जो उपनयनादि संस्कार तथा वेदज्ञान से हीन है, वह द्विज नहीं है, उस की गणना एक - जन्मा होने से शूद्रों में ही है ।
(छ) २।५५ वें श्लोक का मनु की मान्यता से और भी विरोध है । इसमें गायत्री जप से रहित को निन्दनीय ही कहा है, जब कि २।७८ वें श्लोक में उस व्यक्ति को शूद्र मानकर द्विजों से पृथक् करने का आदेश है । एक ही प्रसंग में यह विरोध कदापि संगत नहीं हो सकता ।
(ज) २।६२ श्लोक में केवल जप करने से ही ब्राह्मण की सिद्धि कहना पक्षपातपूर्ण है । क्या दूसरे वर्णों की जप से सिद्धि नहीं हो सकती ? और जब जप से ही सिद्धि हो जाती है, तो ब्राह्मण को दूसरे कर्मों की क्या आवश्यकता है ? और जप करने मात्र से दूसरे कर्मों की छूट देना मनु की मान्यता से विरूद्ध है । १।८८ श्लोक में ब्राह्मण के यजन - याजनादि कर्मों का निर्धारण तथा २।३ में स्वाध्याय, व्रत, यज्ञ, वेदाध्ययनादि से ब्राह्मण बनने का समस्त विधान इस श्लोक को मानने पर वैकल्पिक हो जाता है जो कि विरूद्ध है ।
(झ) २।६१ -६२ श्लोकों में जपयज्ञ का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन है । और वह केवल इसलिये लिखा है कि २।६२ वें श्लोक के अनुसार जप से ब्राह्मण की सिद्धि कही जा सके । यद्यपि पंच्चमहायज्ञों तथा दूसरे कर्मों में अन्तरंग - बहिरंग भेद से कुछ अन्तर कहा जा सकता है, किन्तु इतना अन्तर नहीं है कि (२।६१) सोलवीं कला के बराबर भी नहीं है, अथवा शतगुण या सहस्त्र गुण अधिक है ।