Manu Smriti
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क्षत्रविट्शूद्रयोनिस्तु दण्डं दातुं अशक्नुवन् ।आनृण्यं कर्मणा गच्छेद्विप्रो दद्याच्छनैः शनैः ।।9/229
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र यह सब अर्थ दण्ड के धन के देने की सामथ्र्य न रखते हों तो कार्य करके अर्थ दण्ड से ऋण की नाईं मुक्ति पावें और ब्राह्मण धीरे-धीरे देवे, कार्य न करें।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये दोनों (9/229-230) श्लोक निम्नलिखित कारण से प्रक्षिप्त है— 1. विषय-विरोध- 9/220 वें श्लोक के अनुसार प्रस्तुत विषय़ द्यूत सम्बन्धी विधानों का है । परन्तु इन श्लोकों में सामान्य रूप से दण्ड-सम्बन्धी व्यवस्था का वर्णन है । अतः विषयबाह्य होने से प्रक्षिप्त है । 2. शैली-विरोध- मनु ने दण्डव्यवस्था मे (9/307, 311 में) समभाव एवं न्यायोचित ढंग से समस्त विधान किया है । और जो बुद्धिजीवी और समझदार व्यक्ति समाज में है , उनके अपराध करने पर (8/338) अधिक दण्ड का विधान किया है । परन्तु यहाँ इस शैली से विरुद्ध अन्यवर्णों की अपेक्षा ब्राह्मण को छूट देने से पक्षपातपूर्ण वर्णन किया है । अतः ये दोनो श्लोक प्रक्षिप्त है ।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
यदि क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र पर राजा की ओर से जो जुर्माना हुआ है वह उनके पास न हो तो वह उसके बदले काम करके अपने ऋण को चुकावें। ब्राह्मण इस जुर्माने को थोड़ा-थोड़ा करके चुकावे।
 
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